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________________ भगवान् महावीर २६ करते, औषध नहीं लेते । वे विरेचन, वमन, तैल-मर्दन, स्नान, दतौन आदि नहीं करते । उनका पथ इन्द्रिय के कांटों से अबाध था । कम खाना और औषध न लेना स्वास्थ्य के लिए हितकर है। भगवान् ने वह स्वास्थ्य के लिए नहीं किया । वे वही करते जो आत्मा के पक्ष में होता । उनकी सारी चर्या आत्म-लक्षी थी । अन्न-जल के बिना दो दिन, पक्ष, मास, छह मास बिताए । उत्कटुक, गोदोहिका आदि आसन किए, ध्यान किया; कषाय को जीता; आसक्ति को जीता; यह सब निरपेक्षभाव से किया । भगवान् ने मोह को जीता, इसलिए वे 'जिन' कहलाए । भगवान् की अप्रमत्त साधना सफल हुई । ग्रीष्म ऋतु का वैशाख महीना था । शुक्ल दशमी का दिन था । छाया पूर्व की ओर ढल चुकी थी। पिछले पहर का समय, विजय मुहूर्त्त और उतरा फाल्गुनी का योग था । उस बेला में भगवान् महावीर जंभियग्राम नगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तर किनारे श्यामाक गाथापति की कृषि भूमि में व्यावर्त नामक चंत्य के निकट शालवृक्ष के नीचे 'गोदोहिका' आसन में बैठे हुए ईशानकोण की ओर मुंह कर सूर्य का आतप ले रहे थे । दो दिन का निर्जल उपवास था । भगवान् शुक्ल ध्यान में लीन थे । ध्यान का उत्कर्ष बढ़ा । क्षपक श्रेणी ली। भगवान् उत्क्रांत बन गए । उत्क्रांति के कुछ ही क्षणों में वे आत्म-विकास की आठवीं, नवीं और दसवीं भूमिका को पार कर गए । बारहवीं भूमिका में पहुंचते ही उनके मोह का बन्धन पूर्णतः टूट गया । वे वीतराग बन गए । तेरहवीं भूमिका का प्रवेशद्वार खुला। वहां ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के बन्धन भी पूर्णतः टूट गए। भगवान् अब अनन्त - ज्ञानी, अनन्त-दर्शनी, अनन्त-आनन्दमय और अनन्त - वीर्यवान् बन गए। अब वे सर्व लोक के, सर्व जीवों के सर्वभाव जानने-देखने लगे । उनका साधना-काल समाप्त हो गया । अब वे सिद्धि-काल की मर्यादा में पहुंच गए, तेरहवें वर्ष के सातवें महीने में केवली बन गए । धर्म के संघीय प्रयोग भगवान् ने पहला प्रवचन देव परिषद् में किया । देव अति विलासी होते हैं । वे व्रत और संयम स्वीकार नहीं करते । भगवान् का पहला प्रवचन निष्फल हुआ 1 भगवान् जंभियग्राम नगर से विहार कर मध्यम पावापुरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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