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________________ भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक उसका त्याग करके जंगलों में तपस्या करने वालों के संघ भी थे। तपस्या का एक अंग समझकर ही वे अहिंसा धर्म का पालन करते थे पर समाज में उसका उपदेश नहीं देते थे। वे लोगों से बहुत कम मिलते-जुलते थे। बुद्ध के पहले यज्ञ-याग को धर्म मानने वाले ब्राह्मण थे और उसके बाद यज्ञ-याग से ऊबकर जंगलों में जाने वाले तपस्वी थे । बुद्ध के समय ऐसे ब्राह्मण और तपस्वी न थे, ऐसी बात नहीं है। पर इन दो प्रकार के दोषों को देखने वाले तीसरे प्रकार के संन्यासी भी थे और उन लोगों से पार्श्व मुनि के शिष्यों को पहला स्थान देना चाहिए"। __ जैन परम्परा के अनुसार चातुर्याम धर्म के प्रथम प्रवर्तक भगवान् अजितनाथ और अन्तिम प्रवर्तक भगवान् पार्श्व हैं। दूसरे तीर्थकर से लेकर तेईसवें तीर्थंकर तक चातुर्याम धर्म का उपदेश चला । केवल भगवान् ऋषभ और भगवान महावीर ने पांच महाव्रत धर्म का उपदेश दिया। निर्ग्रन्थ श्रमणों के संघ भगवान ऋषभ से ही रहे हैं, किन्तु वे वर्तमान इतिहास की परिधि से परे हैं । इतिहास की दृष्टि से कौसम्बीजी की संघबद्धता सम्बन्धी धारणा सही है। १. पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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