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चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग
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वैसे धार्मिक का व्यक्तित्व विरूप बनता गया - एक रूप उपासना के - समय का और दूसरा रूप सामाजिक व्यवहार के समय का । एक ही व्यक्ति उपासना के समय वीतराग की प्रतिमूर्ति बन जाता है। और दुकान या कार्यालय में क्रूर बन जाता है । आचार्यश्री तुलसी ने धर्म के क्षेत्र में पनप रही इस द्विरूपता पर चिन्तन कर धर्मक्रांति की आवाज उठाई । उसकी क्रियान्विति के लिए अणुव्रत का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। उसकी पृष्ठभूमि में उनका चिंतन शाश्वत होने के साथ-साथ बहुत ही युगीन है । अनैतिक का मूल हेतु वैषम्य है । साम्य की स्थिति का निर्माण किए बिना नैतिकता को विकसित नहीं किया जा सकता ।
सर्वधर्म समभाव और शास्त्रज्ञ
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भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय धर्म के भिन्न-भिन्न स्वर उच्चारित कर रहे थे । धार्मिक जनता बहुत असमंजस में थी । किस स्वर में धर्म का स्पर्श है और किसमें नहीं, यह निर्णय बहुत कठिन हो रहा था । प्रत्येक स्वर की पुष्टि के लिए पुराने शास्त्रों को साक्ष्य दिए जा रहे थे । उनके समर्थन में नये शास्त्र और नये भाष्य लिखे जा रहे थे । इस शास्त्राकीर्ण धर्म में जनता का प्रवेश नहीं हो रहा था । उस स्थिति में स्याद्वाद के अनुचिन्तक मनीषियों ने धर्म और शास्त्र के विषय में नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया । उपाध्याय यशोविजयजी ने शास्त्रज्ञ की पहचान के लिए तीन मानदण्ड प्रस्तुत किए - अनेकांत, मध्यस्थभाव और उपशम - कषाय की शांति । उन्होंने कहा - ' जो व्यक्ति मोक्ष को दृष्टि में रखते हुए अनेकान्त चक्षु सब दर्शनों की तुल्यता को देखता है, वही शास्त्रज्ञ है ।
मनुष्य में झुकाव की मनोवृत्ति होती है । वह अपने अनुकूल चिंतन और तर्क के प्रति झुक जाता है । झुकाव का कारण राग और द्वेष है । जिसमें राग-द्वेष के उपशमन की साधना नहीं होती, वह मध्यस्थ या तटस्थ नहीं हो सकता । मध्यस्थ भाव को प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति शास्त्रज्ञ नहीं हो सकता । उपाध्यायजी ने बताया- 'माध्यस्थ्य भाव से युक्त एक पद का ज्ञान भी प्रमाण है । माध्यस्थ्य - शून्य शास्त्र - कोटि भी व्यर्थ है ।' उनकी भाषा में मध्यस्थ भाव ही शास्त्र का अर्थ है । वह मध्यस्थ भाव से ही सही -रूप में जाना जाता है ।
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