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________________ जैन संस्कृति १२७ पाद, आदि अनेक आचार्यों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया है। जैन-धर्म : विकास और ह्रास विश्व की प्रत्येक प्रवृत्ति को उतार-चढाव का सामना करना पड़ा है। कोई भी प्रवृत्ति केवल उन्नति और अवनति के बिन्दु पर अवस्थित नहीं रहती। जैन धर्म के विकास के मुख्य हेतु ये हैं : १. मध्यम मार्ग- जैन आचार्यों ने गहस्थ के लिए अणवतों का विधान कर उसकी सामाजिक अपेक्षाओं का द्वार बन्द नहीं किया। २. समन्वय-जैन धर्म के भिन्न-भिन्न विचारों का सापेक्ष दष्टि से समन्वय होने के कारण वह विभिन्न विचारधारा के लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर सका। ३. समाहार-जैन धर्म में जातिवाद की तात्त्विकता मान्य नहीं थी, इसलिए सभी जाति के लोग उसे अपनाते रहे। ४. परिवर्तन की क्षमता-जैन आचार्यों ने सामाजिक परंपरा को शाश्वत का रूप नहीं दिया। इसलिए जैन समाज में देश और काल के अनुसार परिवर्तन का अवकाश रहा। यह जनता के आकर्षण का सबल हेतु रहा। ५. सैद्धांतिक सहिष्णुता–दूसरों धर्मों में सिद्धांतों को सहने की क्षमता के कारण जैन धर्म दूसरों की सहानुभूति अजित करता रहा। ६. जन भाषा का प्रयोग । ७. अहिंसा का व्यवहार में प्रयोग ८. प्रामाणिकता-जैन गृहस्थ अहिंसा-पालन के साथ-साथ कर्तव्य के प्रति बहुत जागरूक थे । वे देश के विकास और रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देते थे। दक्षिण के जैन समाज ने जीविका [अन्नदान], शिक्षा, [ज्ञानदान], चिकित्सा [औषधदान] और अहिंसा [अभयदान के माध्यम से जैन-धर्म को जन-धर्म का रूप दे दिया था। ६. सशक्त और कुशल आचार्यों का नेतृत्व । विक्रम की नवीं-दसवीं शताब्दी में इन स्थितियों में परिवर्तन आने लगा । फलत: जैन धर्म का विकास अवरुद्ध हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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