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________________ जैन परम्परा का इतिहास ऋषभ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अपना उत्तराधिकारी चुना । यह क्रम राजतन्त्र का अंग बन गया। यह युगों तक विकसित होता रहा। विवाह-पद्धति का प्रारंभ नाभि अन्तिम कुलकर थे। उनकी पत्नि का नाम था 'मरुदेवा' । उनके पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया 'उसभ' या 'ऋषभ' । इनका शैशव बदलते हुए युग का प्रतीक था। युगल के एक साथ जन्म लेने या मरने की सहज-व्यवस्था भी शिथिल हो गई। उन्हीं दिनों एक युगल जन्मा। उसके माता-पिता ने उसे ताड़ के वृक्ष के नीचे सुला दिया। वक्ष का फल बच्चे के सिर पर गिरा और वह मर गया। उस युग की यह पहली अकाल मृत्यु थी। अब वह बालिका अकेली रह गयी। थोड़े समय बाद उसके माता-पिता मर गये । उस एक अकेली बालिका को अन्य युगलों ने आश्चर्य की दृष्टि से देखा। वे उसे कुलकर नाभि के पास ले गये । नाभि ने उसे ऋषभ की पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। ऋषभ युवा हो गये । उन्होंने अपनी सहोदरी सुमंगला के साथ सुनन्दा को स्वयं ब्याहा। यहीं से विवाह-पद्धति का उदय हुआ। इसके बाद लोग अपनी सहोदरी के अतिरिक्त भी दूसरी कन्याओं से विवाह करने लगे। खाद्य-समस्या का समाधान . कुलकर युग में लोगों की भोजन-सामग्रों थी-कन्द, मूल, पात्र पूष्प और फल । बढ़ती जनसंख्या के लिए कन्द आदि पर्याप्त नहीं रहे और वनवासी लोग गृहस्वामी होने लगे । इससे पूर्व प्राकृतिक वनस्पति पर्याप्त थी। अब बोए हुए बीज से अनाज होने लगा। वे पकाना नहीं जानते थे। और न उनके पास पकाने का कोई साधन था। वे कच्चा अनाज खाते थे । समय बदला। कच्चा अनाज दुष्पाच्य हो गया। लोग ऋषभ के पास पहुंचे और अपनी समस्या का समाधान मांगा। ऋषभ ने अनाज को हाथों से घिसकर खाने की सलाह दी। लोगों ने वैसा ही किया। कुछ समय बाद वह विधि भी असफल होने लगी। ऋषभ अग्नि की बात जानते थे। किन्तु वह काल एकान्त स्निग्ध था। वैसे काल में अग्नि उत्पन्न हो नहीं सकती। एकान्त स्निग्ध और एकान्त रुक्ष-दोनों काल अग्नि की उत्पत्ति के योग्य नहीं होते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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