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जैन संस्कृति
दो चक्रवर्ती, एक वासुदेव और एक चक्रवर्ती हुए हैं ।]
हरीभद्र ने यह गाथा सुनी। वे वहां खड़े रहे । पुनः गाथा सुनी । उसका अर्थ-बोध नहीं हुआ । इन्हें अपने ज्ञान पर निराशा हुई । वह महत्तरा के पास पहुंचे । गाथा का अर्थ समझा और महत्तरा के शिष्य बन गये | अब ये जैन मुनि होकर विचरण करने लगे ।
पहले से ही ये वैदिक दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे । जैन आगमों का गहन अध्ययन कर वे जैन विद्या के भी पारगामी विद्वान् हो गए । एक बार इन्होंने अपने दो प्रिय शिष्यों हंस और परमहंस को बौद्ध न्याय का अध्ययन करने के लिए नालन्दा भेजा । दोनों शिष्य छद्मवेश में वहां पहुंचे । गहरा अध्ययन किया । किन्तु एक दिन उनके जैन होने का भेद खुल गया । बौद्ध शिष्य उन्हें पकड़ लेना चाहते थे । वे प्राण बचाकर भागे । हंस रास्ते में ही स्वर्गस्थ हो गया । परमहंस आचार्य हरिभद्र तक पहुंचा और उनके चरणों में उसने प्राण त्याग दिए । दोनों शिष्यों की मृत्यु से हरिभद्र का मन क्षुब्ध हो गया ।
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वे कोपाविष्ट होकर अपने तंत्र बल से १४४४ बौद्ध छात्रों को बुलाकर तेल के कडाह में तलने का महान् हिंसा का उपक्रम सोचने लगे । इस हिंसात्मक घटना की सूचना आचार्य जिनदत्त को मिली । उन्होंने कोपाविष्ट हरिभद्र को प्रतिबोध देने के लिए दो मुनियों को तीन श्लोक देकर भेजा । आचार्य जिनदत्त द्वारा प्रेषित इन श्लोकों को पढ़ते ही हरिभद्र का कोप शान्त हो गया और उन्होंने इन श्लोकों के आधार पर समरादित्य काव्य की रचना की ।
उन्होंने सभी बौद्ध शिष्यों को अभयदान दिया और प्रायश्चित्त स्वरूप १४४४ ग्रन्थों की रचना का संकल्प किया। वे सब ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं । वर्तमान में जो उपलब्ध हैं वे भी कम नहीं हैं ।
हरिभद्रसूरि आगमों के प्रथम संस्कृत टीकाकार थे । इन्होंने आवश्यक सूत्र, दशवैकालिक, नंदी आदि पर टीकाएं लिखकर जैन शासन को उपकृत किया है । इनकी टीकाएं प्रशस्त और विद्वत्तापूर्ण
हैं ।
इनकी लेखनी अनेक विषयों पर चली । ये योग के पुरस्कर्ता और न्याय-ग्रंथों के रचयिता थे । अनेकांत जयपताका, योगदृष्टि समुच्चय, षड्दर्शन, योगशतक, योगबिन्दु आदि इनकी अपूर्व रचनाएं हैं । ये समन्वय की श्रृंखला के अग्रणी आचार्य थे ।
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