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जैन संस्क्रति
'प्राकृत' ऐसा नाम रखा है ।
ईसा की आठवीं नौवीं शताब्दी में विदर्भ पर चालुक्य राजाओं का शासन था । दसवीं शताब्दी में वहां राष्ट्रकूट राजाओं का शासन था । ये दोनों राजवंश जैन-धर्म के पोषक थे । उनके शासन काल में वहां जैन धर्म खूब फला-फूला ।
नर्मदा तट
नर्मदा तट पर जैन-धर्म के अस्तित्व के उल्लेख पुराणों में मिलते हैं । वैदिक आर्यों से पराजित होकर जैन-धर्म के उपासक असुर लोग नर्मदा के तट पर रहने लगे। कुछ काल बाद वे उत्तर भारत में फैल गए थे । हैहय वंश की उत्पत्ति नर्मदा तट पर स्थित माहिष्मती के राजा कार्तवीर्य से मानी जाती है । भगवान् महावीर का श्रमणोपासक चेटक हैहय वंश का ही था ।
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दक्षिण भारत
दक्षिण भारत में जैन-धर्म का प्रभाव भगवान् पार्श्व और महावीर से पहले ही था । जिस समय द्वारका का दहन हुआ था, उस समय भगवान् अरिष्टनेमि पल्हव देश में थे । वह दक्षिणापथ का ही एक राज्य था । उत्तर-भारत में जब दुर्भिक्ष हुआ, तब भद्रबाहु दक्षिण में गए। यह कोई आकस्मिक संयोग नहीं, किन्तु दक्षिण भारत में जैन-धर्म के सम्पर्क का सूचन है ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि ईसा की पहली शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में जैन-धर्म सबसे अधिक शक्तिशाली और आकर्षक धर्म था। पांड्य, गंग, राष्ट्रकूट, कलचूरी और होयसल वंश के अनेक राजा जैन थे । पश्चिमी चालुक्य वंश के शासक जैन-धर्म के संरक्षक के रूप में विख्यात थे । राष्ट्रकूट वंश के राजा भी जैन-धर्म को पल्लवित करने तथा उसको संरक्षण देने में अग्रणी रहे हैं ।
तमिल देश के चोल वंशीय शासक यद्यपि जैन नहीं थे, फिर भी उन्होंने जैन-धर्म को पर्याप्त सहयोग देकर उसका संरक्षण किया |
कलचरि वंश के संस्थापक त्रिभुवनमल्ल विज्जल [ ११५६११६७] के सभी दान-पत्रों में जैन तीर्थंकर का चित्र अंकित मिलता है । वह स्वयं जैन था ।
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