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________________ जहां साधुता सिसकती है ८५ होता। वह शुरू होता है विवाद से। विवाद बढ़ते-बढ़ते विग्रह का रूप ले लेता है, उनमें आग्रह और जुड़ जाता है। विवाद, आग्रह और विग्रह की परिणति है कलह । महावीर ने कहा-जो मुनि महाव्रती होते हुए भी इन तीन चीजों का प्रयोग करता है, वह पापश्रमण है। आग्रह करने वाला, विग्रह करने वाला और विवाद करने वाला मुनि पापश्रमण है। मुनि के लिए कहा गया जहां विवाद बढ़े, वहां वह तत्काल अपनी आत्मरक्षा करे। आत्मरक्षा का उपाय है-मौन हो जाना। विवाद वहीं समाप्त हो जाएगा। प्रकृति का चित्रण उत्तराध्ययन के सतरहवें अध्ययन में सर्वांग जीवन शैली के पक्ष और प्रतिपक्ष का बहुत सुन्दर चित्रण हुआ है। जयाचार्य ने दो गीतिकाएं बनाई--खोड़ीली प्रकृति नो धणी और चोखी प्रकृति नो धणी। इन दोनों गीतिकाओं में मनुष्य की प्रकृति का जीवन्त वर्णन है। इस संदर्भ में जयाचार्य ने एक सुन्दर घटना प्रस्तुत की है-- कोई व्यक्ति कपड़ा सी रहा है और बात भी कर रहा है। किसी ने कहा-कपड़ा भी सी रहे हो और बात भी कर रहे हो। कहीं सूई की लग न जाये, इसलिए बातें मत करो। वह प्रत्युत्तर में कहता है--मुझे क्या कह रहे हो, तुम सावधान रहना, कहीं तुम्हारे न लग जाए। जयाचार्य ने कहा-ऐसा व्यक्ति खोड़ीली प्रकृति का धणी होता है। __ महावीर की भाषा में ऐसा मुनि पापश्रमण होता है, साधुओं के ऐसे आचरण से साधुता सिसक उठती है। संक्रामक बीमारी यदि अच्छी बात कोई बच्चा भी कहे तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। किन्तु जिसकी प्रकृति अच्छी नहीं होती है, वह कहेगा--मुझे सलाह देने आया है। खुद तो अपना ध्यान ही नहीं रखता और मुझे सीख देता है। ___'सम्यक् ग्रहण न करना'-एक बहुत बड़ी संक्रामक बीमारी है। एक-दो नहीं, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति इससे ग्रस्त है। प्रत्येक व्यक्ति कहता है-तुम अपना ध्यान रखो, दूसरे की चिन्ता को छोड़ो। वह अच्छी प्रेरणा को भी सम्यक् स्वीकार नहीं करता किन्तु प्रतिक्रिया करता है। वह सोचता है--कब मैं उसकी बात को पकडूं और कहूं-तुम स्वयं क्या कर रहे हो ? जब तक यह नहीं कह देता तब तक उसे पूरा चैन भी नहीं पड़ता। एक प्रकार से मानसिक बेचैनी जैसी स्थिति बन जाती है। उसे तब तक संतोष नहीं मिलता जब तक वह सामने वाले व्यक्ति की बुराई को पकड़ नहीं लेता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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