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________________ चांदनी भीतर की होता है। मनुष्यों का समाज होता है पर साधु, जिसने दुनिया को छोड़ दिया, घर-बार को छोड़ दिया, उसका क्या टोला होता है। साधु और शेर का कोई टोला नहीं होता। उस समय इस प्रश्न का उत्तर क्या दिया गया, नहीं कहा जा सकता पर आज इस प्रश्न का उत्तर दिया जा सकता है। वह उत्तर अनेकान्त की भाषा में होगा--साधुओं का टोला होता भी है और नहीं भी। 'साधु अकेला चलना जानता है' इस दृष्टि से उसका कोई टोला नहीं होता। लेकिन यह सत्य है--जो अकेला चलना जानता है, वही वास्तव में टोला बनाने का अधिकारी हो सकता है। जो अकेला चलना नहीं जानते, उनका टोला बनता भी है तो वह लंबे समय तक टिक नहीं सकता। साधुत्व का मर्म साधुता की महत्त्वपूर्ण कसौटी है--अकेला चलना। राग-द्वेष मुक्त होना, इसका अर्थ है अकेला होना। आचारांग सूत्र में मुनि का एक विशेषण है-'ओए'--ओज । इसका अर्थ है--अकेला होना। जब-जब राग-द्वेष आता है, व्यक्ति अकेला नहीं रहता। जब राग-द्वेष से मुक्त रहा, अकेला रह गया। राग और द्वेष--ये दो साथी बने हुए हैं। राग-द्वेष छूटे और व्यक्ति अकेला रह गया। राग और द्वेष--दोनों आदिकाल से हमारे साथी बने हुए हैं। इनका साथ छूटने पर बचता कौन है ? व्यक्ति यह सोचे-चाहे मैं कितने ही व्यक्तियों के साथ रह रहा हूं पर वास्तव में अकेला हूं। यह सूत्र जितना स्पष्ट रहेगा, जीवन में कोई खतरा आएगा ही नहीं। दो शब्द हैं--द्वन्द्व और निर्द्वन्द्व । जो राग-द्वेष में जी रहा है, वह द्वंद्व में जी रहा है। जो इनसे मुक्त है, वह है निर्द्वन्द्व । आचार्य भिक्षु का प्रसिद्ध वाक्य है--गण में रहूं निरदाव अकेलो, जो द्वन्द्व में उलझ गया, वह खतरे की ओर बढ़ता चला जाएगा। जिन्होंने वास्तव में अकेलेपन का अनुभव किया है, उन्होंने साधुता के मर्म को समझा है। अव्यग्र मन साधुता की दूसरी कसौटी है-अव्यग्र मन। चित्त की दो प्रकार की अवस्थाएं हैं-व्यग्र और अव्यग्र । मन चारों ओर भटकता रहता है। यह उसकी व्यग्रता है। वह एक बिन्दु पर केन्द्रित हो गया, इसका अर्थ है-एकाग्र मन । हम रूपक की भाषा में समझें-बछड़ा इधर-उधर चक्कर लगा रहा है, कूद-फांदकर रहा है, इसका तात्पर्य है-व्यग्र मन । उसे एक खूटे से बांध दिया। वह केवल उसकी ही परिक्रमा कर पाएगा, इसका तात्पर्य है एकाग्र मन--इधर-उधर भटकते हुए मन को एक स्थान पर केन्द्रित कर देना। मुनि का एक विशेषण है--अबहिल्लेसे उसकी लेश्या बाहर नहीं जाए, भीतर रहे। जिसने लेश्या को भीतर बांध दिया, वह अव्यग्र हो गया। जिसने मन की एकाग्रता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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