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साधुत्व की कसौटी
को नहीं साधा, उसने साधना के मर्म को नहीं समझा। मन में चंचलता और विक्षेप न आए, यह साधना की कसौटी है ।
मैं कहां हूं
एक भाई ने पूछा -- महाराज ! आपको साधु बने कितने वर्ष हुए हैं ? मुनिजी ने उत्तर दिया--पन्द्रह वर्ष | उस भाई ने अगला प्रश्न पूछा --आप कहां तक पहुंचे हैं? यह प्रश्न प्रत्येक साधनाशील व्यक्ति के सामने है - वह कहां तक पहुंचा है ? अभी वह कहां है और पहले वह कहां था। पांच वर्ष की साधना कर वह कहां तक पहुंचा ? दस वर्ष बाद कहां तक पहुंचा ? जिस साधक ने मन की एकाग्रता को साधा है, वही व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है।
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प्रश्न पूछा गया -: -भगवन् ! एक वर्ष के दीक्षित साधु को कितना सुख उपलब्ध होता है ? महावीर ने उत्तर दिया-- एक वर्ष का दीक्षित साधु सर्वार्थसिद्ध के देवताओं के सुखों का अतिक्रमण कर देता है।
हम अभिधा से नहीं, लक्षणा से विचार करें। सर्वार्थ सिद्ध का लाक्षणिक अर्थ है - जिसके अर्थ सिद्ध हो गए। साधक चेतना की उस भूमिका पर पहुंच गया, जहां पहुंचने पर कोई प्रयोजन शेष नहीं रहता । इस संदर्भ में यह प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है- 'मैं कहां हूं ?' मैं कौन हूं--इससे पहले यह प्रश्न उभरे मैं कहां हूं ? जिसके सामने क्षितिज पर यह प्रश्न लिखा रहेगा, उसकी साधना में निरन्तर निखार आता रहेगा, साधुता की कसौटियां उसके लिए मार्गदर्शक बन जाएंगी ।
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