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जब सत्य को झुठलाया जाता है
परिणाम अच्छा नहीं होता। जब सत्य का पता चलता है तब वह झूठ उसे ही सालने लगता है।
पुत्र ने पिता को एक अंगूठी भेजी। उसने लिखा- पिताजी ! आपको मैं एक अंगूठी भेज रहा हूं। उसका मूल्य है पांच हजार रुपया । पिता ने अंगूठी पहन ली। अंगूठी बहुत चमकदार और सुन्दर थी । बाजार में मित्र मिले। नई अंगूठी को देखकर पूछा- यह कहां से आई ? उसने कहा- लड़के ने भेजी हैं। पांच हजार रुपये लगे हैं। मित्र बोला- क्या इसे बेचोगे ? मैं पचास हजार दूंगा । उसने सोचा- पांच हजार की अंगूठी के पचास हजार मिल रहे हैं। इतने रुपयों में ऐसी दस आ जाएंगी। उसने अंगूठी निकालकर दे दी और पचास हजार रुपये ले लिए । पुत्र को पत्र लिखा --तुमने शुभ मुहूर्त में अंगूठी भेजी । उसको मैंने पचास हजार रुपए में बेचकर पैंतालीस हजार रुपए कमा लिए । लौटती डाक से पत्र आया - पिताजी ! संकोच और भयवश मैंने सचाई नहीं लिखी थी । वह अंगूठी एक लाख की थी ।
यह सत्य को झुठलाने का परिणाम था ।
संवाद पिता के साथ
भृगुपुत्रों ने कहा -- पिताजी ! आपने सत्य को झुठलाने का प्रयत्न कर अच्छा नहीं किया ।'
पिता को कहा- 'तुम मुनि क्यों बनना चाहते हो ?”
'आत्मा को पाने के लिए।'
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'अरे ! तुम कहां भ्रम में फंस गये। यह झूठा मंत्र तुम्हारे कान में किसने फूंक दिया। क्या कोई साधु मिला था ?"
'हां ! जो मिलना था, मिल गया। यह कहकर भृगुपुत्रों ने पूरी कथा सुना दी। राजपुरोहित ने सोचा- अनर्थ हो गया। अब क्या करूं ? उसने कहा- 'कहां है आत्मा ? आत्मा तो है ही नहीं ।'
वह सत्य को फिर झुठलाने का प्रयत्न करने लगा। अब तक आस्तिक था और अब नास्तिक बन रहा था ।
राजपुरोहित बोला-'पुत्रो ! तुम्हें यह झूठी बात किसने सिखला दी । तुमने अरणी की लकड़ी देखी है ?'
'हां' ! '
'क्या उसमें आग होती है ?
'नहीं ।'
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