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________________ चांदनी भीतर की 'इतनी झूठी बात कैसे बताई ? 'क्या यह सच नहीं है ?' 'इसमें बिल्कुल सचाई नहीं है। हम तो एक चींटी को भी नहीं सताते। फिर आदमी को सताने की बात ही कहां है ? तुमने स्वयं देखा होगा ? जब हम वृक्ष के नीचे ठहरे तो भूमि का प्रमार्जन कर ठहरे। उस पर कंबल बिछा कर बैठे। किसी जीव को संत्रास न पहुंचे, यह हमारा व्रत है। मुनि ने विस्तार से अहिंसक चर्या की जानकारी दी। जाति स्मृति पूरी जानकारी पाते ही पर्दा हट गया। उन्होंने सोचा-यह क्या ? क्या पिता भी इतनी गलत बातें बता सकता है ? पिताजी ने ऐसा क्यों बताया ? वे इस प्रश्न की गहराई में गए, आवरण हट गया। यथार्थ सामने आ गया। उनके मन में प्रश्न उभरा--अहो ! ऐसे साधु हमने कहीं देखें हैं ? इस प्रश्न पर चिन्तन गहरा हुआ। उन्हें जाति स्मृति ज्ञान उपलब्ध हो गया। उन्होंने अपने पूर्वजन्मों को साक्षात् देख लिया। उन्होंने देखा-हम दो ही नहीं, छः मित्र थे। इससे पहले हम छहों मित्रों ने किसी इभ्य कुल में जन्म लिया। उस जन्म में हम सबने विविध भोगों को भोगा और उसके बाद मुनि बन गये। उस भव में मरकर हम देवलोक में उत्पन्न हुये और वहां से च्युत होकर राजपुरोहित भृगु के पुत्र के रूप में जन्म लिया है। हमारे पिता और माता हमारे पूर्व भव के दो मित्र हैं और दो मित्र इषुकार नगर के राजा इषुकार और रानी कमलावती हैं। पिता से निवेदन अपने अतीत को साक्षात् देखते ही उनके मन में असीम श्रद्धाभाव जागा। उन्होंने मुनि को भावपूर्ण वन्दना कर प्रार्थना की-मुनिवर ! हम भी आपके पास दीक्षित होंगे, मुनि बनेंगे। हम दीक्षा के लिए पूर्णतः प्रस्तुत हैं। आप हमारे गांव में पधारें। हम पिताजी की अनुज्ञा लेने जा रहे हैं। वे सीधे पिता के पास पहुंचे। पिता से आग्रह किया-पिताजी ! हम मुनि बनना चाहते हैं। आप हमें आज्ञा दें। राजपुरोहित भृगु यह सुनकर अवाक् रह गया। उसने कहा-यह कैसी पागलपन की बात है ! दोनों भाई एक साथ बोल पड़े--पिताजी ! आपने हमें बहुत झूठ सिखाया है, सदा सत्य को झुठलाया है। अब आप सत्य को नहीं झुठला सकते। झुठलाने का परिणाम जो आदमी सत्य को झुठलाता है, वह घाटे में रहता है। सत्य को झुठलाने का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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