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चांदनी भीतर की
में चक्रवर्ती सनत्कुमार को देख, काम-भोगों में आसक्त होकर मैंने अशुभ निदान-भोग का संकल्प कर डाला। उस पूर्वजन्म के निदान का मैंने प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त नहीं किया। उसी का यह फल है कि मैं धर्म को जानता हुआ भी काम भोगों में मूच्छित हो रहा हूं।
अहपि जाणामि जहेह साहू, जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं । भोगा इमे संगकरा हवन्ति, जे दुज्जया अज्जो अम्हारिसेहिं ।। हत्थिण पुरम्मि चित्तादट्ठूणं नरवरं महिड्ढियं । कामभोगेसु गिद्धेणं, नियाणमसुहं कडं ॥
तरस मे अपडिकंतस्स, इमं एयारिसं फलं ।
जाणमाणो वि जं धम्मं, कामभोगेसु मुच्छिओ ।।
चक्रवर्ती ने कहा- मैं अपने ही पूर्वकृत् कर्म के कारण, स्वयं द्वारा किए गए निदान के कारण आसक्ति में डूबा हुआ हूं। धर्म को जानता हुआ भी मैं उसमें प्रवृत्त नहीं हो पा रहा हूं।
प्रश्न कहीं : उत्तर कहीं
महाभारत और उत्तराध्ययन के इस प्रकरण में कितना साम्य है ! हम केवल प्रश्न को ही न छुएं, समाधान को भी छुएं। यह दुनिया बड़ी विचित्र है। प्रश्न कहीं पैदा हुआ है और उत्तर कहीं दिया गया है। प्रश्न पूछा जा सकता है बम्बई में और उत्तर मिल सकता है जैन विश्व भारती में सीमेंट कहीं बनती है, ईंटें कहीं बनती हैं, चूना कहीं बनता है, इन सबसे मकान और कहीं बन जाता है। एक ग्रंथकार ने एक समस्या प्रस्तुत कर दी, एक विचार प्रस्तुत कर दिया, व्यक्ति के मस्तिष्क को झकझोर दिया। यह कोई जरूरी नहीं है कि जो प्रश्न खड़ा करे, वही समाधान भी दे । दूसरा ग्रन्थकार समाधान दे देता है, प्रश्न खड़ा नहीं करता। अध्येता के लिए यह जरूरी है कि वह एक ग्रंथ में प्रश्न खोजे और दूसरे ग्रन्थ में समाधान खोजे । महाभारत के प्रश्न को उत्तराध्ययन में बहुत सुन्दर समाधान मिला और वह तब मिला जब दो भाइयों का मिलन हुआ।
विकास का पहला चरण
मिलन में से बहुत सारी बातें निकलती हैं। मिलन और सम्मेलन व्यर्थ नहीं होता । सफलता या विकास का पहला आधार है मिलन या सम्मेलन । जब मिलते ही नहीं है तब विकास की बात ही समाप्त हो जाती है। विकास का पहला चरण है मिलन। दो आंखे मिलती हैं, एक नया संबंध पनपता है । अपनी ही दो आंखें मिलती
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