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________________ महत्त्वपूर्ण प्रश्न दो भाइयों का मिलन महाभारत का एक प्रसिद्ध पद्य है- जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः । मैं धर्म को जानता हूं पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है। मैं अधर्म को जानता हूं पर उससे निवृत्त नहीं हो पा रहा हूं। यह प्रश्न बहुत बार चर्चित हुआ है--धर्म को जानते हुए भी उसमें प्रवृत्त क्यों नहीं हो पाता हूं ? अधर्म को जानते हुए भी उससे निवृत्त क्यों नहीं हो पाता हूं ? महाभारतकार ने एक प्रश्न उपस्थित कर दिया और उसका सुन्दर समाधान दिया गया है उत्तराध्ययन सूत्र में। उत्तराध्ययन सूत्र का तेरहवां अध्ययन है - चित-संभूतीय | चित्र महान् निर्ग्रथ हैं और संभूति हैं चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त । मुनि और राजा के बीच बहुत लंबा संवाद चला और उस संवाद में यह प्रश्न उत्तरित हुआ है। मुनि का संबोधन मुनि चित्र ने कहा- राजन्! जो इस अशाश्वत जीवन में प्रचुर शुभ का अनुष्ठान नहीं करता, वह मृत्यु के मुख में जाने पर पश्चात्ताप का अनुभव करता है और धर्म की आराधना न होने के कारण परलोक में मी पश्चात्ताप करता है। इसलिए तुम लौकिक सुखों में मत फंसो । इन्हें छोड़कर लोकोत्तर सुख की उपलब्धि के लिए प्रस्थान करो । इह जीविए राय ! असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाइं अकुव्यमाणो । से सोयई मच्चुमुहोवणीए, धम्मं अकाऊण परसि लोए ।। चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त बोला- - मुनिप्रवर! आप जो कह रहे हैं, वह बिलकुल यथार्थ है। मैं भी यह जानता हूं-ये काम - भोग आसक्तिजनक होते हैं किन्तु मुनिवर ! ये भी हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए दुर्जय हैं। फल निदान का काम - भोगों की दुर्जयता का कारण बताते हुए राजा ने कहा- मुनिप्रवर! हस्तिनापुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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