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चांदनी भीतर की
दूसरा जो कहता है, वह भी सचाई है। किसी भी विचार के प्रति निरपेक्ष न बर्ने, सापेक्ष बने रहें। जब सापेक्षता का सूत्र पकड़ में आता है, खण्डन या अस्वीकार का स्वर मंद हो जाता है। यदि पूछा जाए क्या यह हाथ शरीर है ? कहा जाएगा -- हां, यह हाथ शरीर है । पुनः प्रश्न होगा - हाथ शरीर है तो भुजा क्या है ? क्या वह शरीर नहीं है ? समाधान दिया गया - शरीर है पर यहीं रुको मत और आगे बढ़ो | शरीर नहीं है यहां पर भी रुको मत और आगे बढ़ो। आगे बढ़ेंगे तो हमारा कथन होगा - सारे अंग एक एक अवयव हैं, सबको मिलाएं, एक अवयवी बन जाएगा। मोटर का एक पहिया मोटर है और मोटर नहीं भी है। अगर एक पहिए को मोटर मान कर उसे चलाएं, उस पर १०-२० आदमी बैठ जाएं तो फलित क्या होगा अगर वह मोटर नहीं है, ऐसा मानें और पहिए को निकाल कर फिर मोटर चलाएं तो क्या होगा ? क्या मोटर चलेगी ?
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वैचारिक अनाग्रह का सूत्र
सबको एक साथ देखें और कभी-कभी जरूरत हो तो अलग-अलग देखें। अगर हाथ में दर्द है तो हाथ का व्यायाम करें, हाथ की मालिश करें। हाथ को भी अलग देखें, किन्तु शरीर से काटकर नहीं ! महावीर का यह दृष्टिकोण हृदयंगम हो जाए तो वैचारिक आग्रह को अवकाश ही न मिले। अगर एक हाथ को शरीर मान लिया जाए तो भी मिथ्या दृष्टिकोण हो जाएगा । किन्तु इन सारे मिथ्या दृष्टिकोणों को मिला दिया जाए, सापेक्ष बना दिया जाए तो सम्यक् दर्शन - अनेकान्त बन जाएगा। आज इस बात की जरूरत है कि हम अनेकान्त दृष्टि का उपयोग कर पायें तो हमारा भाषा का प्रकार बदल जाएगा, बोलने की शैली बदल जाएगी, दूसरों के साथ व्यवहार करने की शैली बदल जाएगी। हमारा स्वर यह नहीं रहेगा-
तुम आओ डग एक तो, हम आएं डग अट्ठ। तुम हमसे करड़े रहो तो हम हैं करड़े लट्ठ ।। अनेकांत की विशेषता
हमारे व्यवहार और वाणी में लचीलापन आ जाएगा। अनेकान्त की सबसे बड़ी विशेषता है सोच को लचीला बना देना। इस बात की आज बहुत अपेक्षा है, यह बहुत बड़ा काम है। आज एक करणीय कार्य है- जैन दर्शन के जितने ग्रन्थ पन्द्रहवीं शताब्दी में आचार्य सिद्धसेन से लेकर और यशोविजयजी तक लिखे गए हैं, उनमें कहां दूसरे दर्शनों का खण्डन किया गया है, उसे खोजा जाए, उस पर पुनर्विचार किया जाए, उसका पुनर्मूल्यांकन किया जाए। यह भी विमर्शनीय है कि जो खंडन किया गया, क्या
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