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यज्ञ, तीर्थ स्थान आदि का आध्यात्मिकीकरण वह आवश्यक था ? अमुक नय की दृष्टि से विचार करते तो खण्डन करना कोई जरूरी नहीं था। यह टिप्पणी की जा सकती है कि यह विचार एकान्तदृष्टि से, निरपेक्षदृष्टि से माना जाए तो मिथ्या है। अगर इसे सापेक्षता से स्वीकारा जाए तो बिल्कुल सही है। खंडन के पुनर्वीक्षण में इतनी टिप्पणी ही पर्याप्य हो सकती है। महावीर का दृष्टिकोण ___आज पुनर्मूल्यांकन की जरूरत है। भगवान् महावीर ने यज्ञ के संदर्भ में, तीर्थ स्थान के संदर्भ में जिस दृष्टि का प्रयोग किया, वह अनेकान्त का निदर्शन है। भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य महावीर के पास आए। महावीर ने उन पर अपना विचार नहीं थोपा। महावीर उनसे पूछते-बोलो, पुरुषादानीय पार्श्व ने क्या कहा है ? वे उन्हें उनके मंतव्य से ही अभिभूत कर देते। वैदिक विद्वान् आए, इन्द्रभूति गौतम आए। भगवान् ने कहा-तुम कहते हो कि आत्मा नहीं है, लेकिन तुम्हारे वेदों में ऐसा माना गया है। इसका जो निष्कर्ष निकलता है, वह यह है कि हमारा कहीं आग्रह न हो। जिस व्यक्ति में जितना राग, द्वेष प्रबल होगा, वह व्यक्ति उतना ही एकांतवादी होगा, एकान्त का आग्रह करेगा।
राग, द्वेष और एकान्तवादिता को कभी अलग नहीं किया जा सकता। वीतराग का अर्थ है अनेकान्त की दिशा में प्रस्थान । जो व्यक्ति जितना राग-द्वेष कम करेगा, अपने आप उसका सम्यक् दर्शन जागेगा, अनेकांत की दृष्टि प्रबल होगी। महावीर ने अनेकान्त के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। वीतरागता, समता और अनेकान्त तीनों एक बिन्दु पर पहुंच जाते हैं।
महावीर की साधना-पद्धति का एक प्रतिनिधि शब्द है वीतरागता। जैनधर्म में आदर्श है वीतराग । उसका दर्शन है वीतरागता की साधना का । जैन दर्शन में आस्था रखने वाले व्यक्ति का लक्ष्य है वीतराग होना । चरित्र का अन्तिम रूप है वीतरागता । वीतरागता का पहला बिन्दु है समता और उसका अंतिम बिन्दु है समता।
समता से बड़ा कोई चरित्र नहीं है, आचरण नहीं है। आचार्य सोमदेव ने लिखा-- समता परमं आचरणं। समता सब आचरणों में परम आचरण है। वीतरागता और समता दो नहीं हैं। वीतराग हुए बिना समता के बिन्दु पर कभी पहुंचा नहीं जा सकता। जहां समता है वहां एकान्त आग्रह नहीं होगा, अनेकान्त होगा। प्रतिस्रोत के पथ
भगवान् महावीर के समय में आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार की समस्याएं थीं। अनेक दर्शनों ने इन पर विचार-मंथन प्रस्तुत किया। आधिदैविक
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