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जातियाद तात्त्विक नहीं है
तत्कालीन परिस्थिति के आधार पर हुआ। उस समय दासप्रथा प्रचलित थी। अहिंसा की व्याख्या में एक बात कही गई-किसी को दास मत बनाओ। यह अहिंसा की कोई मूल परिभाषा नहीं है। यह परिस्थिति से उपजा हुआ सिद्धान्त था। अहिंसा का मूल हार्द है--राग-द्वेष मत करो, किसी को मत सताओ। उसका जो विस्तार हुआ है, वह सामाजिक स्थितियों के सन्दर्भ में हुआ है। आचार्यश्री ने अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन किया। नया मोड़ चलाया। उसके व्रतों का निर्धारण वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर हुआ। आचार्य भिक्षु ने धर्म की जो व्याख्या की, उसका आधार भी समाज की तत्कालीन परिस्थितियां थी। अगर समाज नहीं होता तो सत्य का व्रत नहीं होता। अगर व्यक्ति अकेला होता तो सत्य का व्रत नहीं बनता। अगर समाज नहीं होता तो अस्तेय और ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं बनता। इन व्रतों की उपयोगिता समाज के सन्दर्भ में है। हो सकता है--पहले अहिंसा ही एक व्रत रहा हो। चार या पांच महाव्रत इसका विस्तार है। आचार्य हरिभद्र ने व्रतों की बहुत सूक्ष्म मीमांसा की है। उन्होंने लिखा
अहिंसा पयसः पालिभूतान्यन्यव्रतानि यत्। मूल व्रत एक है अहिंसा। शेष सारे व्रत उसकी सुरक्षा के लिए हैं। व्रतों का सारा विस्तार सामाजिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में होता है। जातिवाद की अतात्त्विकता आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा
आश्रवो भवहेतुः स्याद, संवरो मोक्षकारणम्।
इतीयमाहतीदृष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम्।। आश्रव भव भ्रमण का हेतु है और संवर मोक्ष का कारण है। समग्र अर्हत् दर्शन इन दो तत्त्वों का विस्तार है।
जितनी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, उतना ही दर्शन का विस्तार होता चला जाता है। भगवान महावीर ने आत्मतुला का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा--सब जीवों को अपने समान समझो। जातिवाद की अतात्त्विकता इसी सिद्धान्त का विस्तार है। उस समय सामाजिक परिस्थितियों के कारण यह स्वर प्रबल बना। महावीर के समय में समाज की क्या परिस्थितियां थी, क्या सामाजिक मान्यताएं थी, यदि इनका विश्लेषण किया जाए तो जातिवाद के समर्थन या विरोध की परिस्थिति को समझा जा सकता है। इस परिस्थिति के संदर्भ में ही जातिवाद और अहंकार की पृष्ठभूमि का विश्लेषण यथार्थरूप में प्रस्तुत हो पाएगा।
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