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चांदनी भीतर की दीक्षित कर लिया। वह सर्वत्यागी मुनि बन गया। इन्द्र का अहंकार पराजित हो गया। वह वैभव और शक्ति से सम्पन्न था, समृद्ध था किन्तु त्याग के क्षेत्र में वह दशार्णभद्र की बराबरी नहीं कर सका। वह राजर्षि के चरणों में झुक गया। उसने कहा-राजर्षि आप जीते, मैं हारा। सार्वभौम उद्घोष जातिवाद की इस समस्या को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है।
यथा यथा विवर्धतेऽभिमन्यता निरंकुशा । तथा तथा प्रवर्धत घृणा व जातिसंभवा।। यथा यथा प्रवर्धते समत्वभाव संस्तवः।।
तथा तथा विलीयतेऽभिमानभावना स्वतः।। जैसे-जैसे निरंकुश अभिमन्यता बढ़ती है, वैसे-वैसे जाति से पैदा होने वाली घृणा बढ़ती चली जाती है। जैसे-जैसे समत्व भाव से परिचय बढ़ता है, वैसे-वैसे अभिमान भावना स्वतः विलीन हो जाती है, अपनी मौत मर जाती है।
यह जातिवाद का भूत, अहंकार का आवेश मनुष्य को सताता रहता है और इसी आधार पर विषमता को बढ़ावा मिलता है। जहां विषमता होती है, वहां आदमी-आदमी को समान मानने की बात गौण हो जाती है। एक आदमी दूसरे आदमी को घृणित माने, इससे बढ़कर मानवता का कोई अपमान नहीं हो सकता। इस बात को लेकर जैन और बौद्ध आचार्यों ने जातिवाद के खण्डन में अपनी पूरी शक्ति लगाई। डेढ़ हजार वर्ष का दार्शनिक साहित्य इसका स्पष्ट प्रमाण है। दूसरी ओर जातिवाद के समर्थकों ने उसके मंडन में अपनी शक्ति नियोजित की। एक पक्ष था-जातिवाद वास्तविक है, काल्पनिक नहीं है। दूसरा पक्ष था-जातिवाद कल्पना है, मान्यता है, वास्तविक नहीं। जातिवाद सचाई नहीं है। महावीर के सिद्धान्तों से उपजा यह घोष मुखर हो उठा-'एक्का मणुस्स जाई'--मनुष्य जाति एक है। जाति का कोई भेद नहीं है, जाति में कोई अलगाव नहीं है। आज यह उद्घोष सार्वभौम और सामुदायिक बन रहा है। हमें यह मानना चाहिए--जातिवाद के पीछे जो एक अहंकार था, वह बदल रहा है, नया रूप ले रहा है। जब जक समत्व की प्रतिष्ठा नहीं होगी, अहंकार को नया रूप मिलता रहेगा। महावीर के जो सिद्धान्त विकसित हुए हैं, उनके पीछे सामाजिक पृष्ठभूमि रही है। जिस समय जो सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियां होती हैं, सिद्धान्तों का निर्माण उन परिस्थितियों के सन्दर्भ में होता है। विस्तार : परिस्थिति सापेक्ष
हिंसा नहीं करनी चाहिए, यह एक सिद्धान्त है। अहिंसा की व्याख्या का विस्तार
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