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कर्मणा जातिः
भगवान् ऋषभ राज्य और समाज की व्यवस्था कर रहे थे। राज्य और समाज की व्यवस्था में कार्य का विभाजन जरूरी होता है। मुख्य प्रश्न यह था किस व्यक्ति को किस कार्य में लगाया जाए ? जब यौगलिक या अरण्य का जीवन था तब न व्यवस्था की जरूरत थी, न कार्य विभाजन की जरूरत थी और न श्रम के बंटवारे की जरूरत थी। जिसने जैसा चाहा, वैसा कार्य कर लिया। जहां समाज के निर्माण का प्रश्न है, वहां विभाग अत्यन्त जरूरी है।
त्रिवर्ण व्यवस्था
भगवान् ऋषभ ने समाज को तीन भागों में विभाजित किया । एक विभाग का आधार बना--पराक्रम, एक विभाग का आधार बना- व्यवसाय और एक विभाग का आधार बना उत्पादन । समाज के लिए उत्पादन का कौशल जरूरी है, विनिमय की आवश्यकता है और सामाजिक हितों का संरक्षण अपेक्षित है । यदि उत्पादन नहीं है तो विनिमय की बात नहीं आएगी । कृषि शब्द उत्पादन का प्रतीक है। जो उत्पादक वर्ग बना, वह कृषक वर्ग कहलाया। उसका कार्य था उत्पादन करना और सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना। दूसरा वर्ग बना व्यवसाय करने वालों का। जो उत्पादन हुआ है, उसे जनता तक पहुंचाना। उसका माध्यम बना - विनिमय करना, लेना-देना । उसका प्रतीक शब्द है - स्याही या लेखनी। जब दो वर्ग बन गए तब संघर्ष की संभावना भी बन गई। इस स्थिति में एक वर्ग बना संरक्षक वर्ग । वह क्षत्रिय नहीं कहलाया ! उसका प्रतीक बना तलवार । क्षत्रिय वर्ग, व्यापारी वर्ग और कृषि वर्ग-इन तीनों विभागों के आधार पर समाज को बांट दिया गया । यह त्रिवर्ण व्यवस्था है।
चतुर्वर्ण व्यवस्था
वैदिक विद्वानों ने समाज को चार भागों में बांटा। उसके चार आधार थे--बुद्धि, पराक्रम, आवश्यकता पूर्ति और सेवा । माना जाता है कि सृष्टि की रचना हुई और उसमें ब्राह्मण ब्रह्मा के शिर से पैदा हुआ। क्षत्रिय भुजा से पैदा हुआ। वैश्य पेट से और शूद्र पैरों से पैदा हुआ। हम इन शब्दों को पकड़ेंगे तो बात बहुत अटपटी लगेगी।
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