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भिक्षा लेने के लिए।
भिक्षा लोगे ?
हां !
जातिवाद का नाग फुफकार उठा । ब्राह्मण आवेश से भर गए। उन्होंने कहा-चले जाओ यहां से। तुम यहां भिक्षा लेने आए हो ? तुम्हें पता नहीं है, यहां ब्राह्मण यज्ञ कर रहे हैं। यह भिक्षा जातिवान् ब्राह्मणों के लिए है, तुम्हें भिक्षा नहीं मिलेगी ।
मुनि बोले- मैंने देखा - तुम्हारे यहां बहुत रसोई बन रही है, सहज ही बहुत अन्न पकाया जा रहा है। उसमें से कुछ इस भिक्षु को मिल जाए, और कोई लेना-देना नहीं है ।
चांदनी भीतर की
नहीं ! नहीं मिल सकता। जो जाति से उच्च हैं, उन्हें ही यह अन्न मिल सकता है। जो विद्या से उच्च हैं, उन्हीं के लिए यह भोजन है। तुम जाति से हीन हो, क्योंकि चांडाल पुत्र हो। तुम विद्या से हीन हो, क्योंकि तुमने वेद नहीं पढ़े हैं, इसलिए तुम्हें यह अन्न नहीं मिल सकता ।
मुनि ने कहा- तुम जाति से अपने आपको महान् मानते हो, वस्तुतः तुम महान् नहीं हो। तुम आवेश में हो, अभिमान से भरे हुए हो और साथ-साथ हिंसा से जघन्य पाप का बंध कर रहे हो। तुम विद्या से भी महान् नहीं हो सकते। इस संसार में तुम केवल वाणी का भार ढो रहे हो । ' शास्त्रं भारोऽविवेकिनां' - तुम्हारे लिए शास्त्र भार बन रहे हैं। तुम इसका हृदय नहीं समझ पाए हो ।
मुनि और ब्राह्मणों के बीच लम्बा संवाद चला। एक और त्याग तपस्या का बल था, दूसरी ओर जाति का अहंकार था । अन्ततः अहंकार हार गया, त्याग और तपस्या का बल विजयी बन गया। ब्राह्मण मुनि के चरणों में नत हो गए।
सदा हारता है अहंकार
अहंकार सदा हारता है । अन्तिम विजय समत्व की होती है, तप की होती है । जहां समता है, त्याग है, वहां अहंकार टिक नहीं पाता। एक सेठ के मन में धन का अहंकार जाग गया। उसने धन के प्रदर्शन की एक योजना तैयार की। कोरा दहेज ही धन के प्रदर्शन का तरीका नहीं है, उसका प्रदर्शन अनेक प्रकार से हो सकता है। उसने घोषणा करवाई- मेरी मां के पड़पोता हुआ है इसलिए मैं अपनी मां की पूजा करवाऊंगा । घोषणा हो गई। अनेक लोग आ गए। पंडित को बुलाया गया । सेठ ने अपनी मां को सोने की चौकी पर बिठाया। पूजा विधि सम्पन्न हुई। सेठ ने घोषणा की - पंडितजी ! आपने सुन्दर ढंग से पूजा विधि संपादित की है इसलिए मैं आपको
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