SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६५ चोर से अचौर्य की प्रेरणा मूल है उपादान ___आदमी ने देखा-उद्यान में एक ओर वृक्ष हरे-भरे हैं, दूसरी ओर सूखे हैं। उसने माली से पूछा-भाई ! क्या बात है ? एक ओर पेड़-पौधे हरे-भरे हैं, फल-फूल से लदे हुए हैं, दूसरी ओर बिल्कुल शुष्क पड़ा है। क्या तुमने इस ओर ध्यान नहीं दिया ? माली बोला-महाशय ! मैंने ध्यान तो दिया पर क्या करूं? एक दुर्घटना घट गई। क्या दुर्घटना घटी? 'मुझे किसी कारणवश बाहर जाना पड़ा। मैंने छोटे लड़के से कहा-तुम बगीचे का पूरा ध्यान रखना। वह उसमें प्रतिदिन पानी सींचने लगा। एक दिन उसके मन में विकल्प उठा--ये पौधे छोटे हैं और ये पौधे बड़े हैं। सब पौधों की ऊंचाई समान नहीं है और मैं सबको बराबर पानी दे रहा हूं। सबको समान पानी देने का मतलब क्या है ? मुझे यह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए। जिसकी जड़ जितनी बड़ी है, उसको उतना ही पानी देना चाहिए। उसने सोचा-पेड़ों की जड़ का पता लगाना होगा। उसने जड़ की खुदाई शुरू कर दी, जड़ को नापना शुरू कर दिया। खुदाई कर उसने सारे पेड़ों को उखाड़ दिया, सबकी जड़ें नाप ली। एक चार्ट बना लिया-इस पौधे की इतनी बड़ी जड़ है और उस पौधे की इतनी बड़ी है। उसने उस चार्ट के हिसाब से पौधों को पानी देना शुरू किया किन्तु पौधे सूखते ही चले गए। उसकी बुद्धिमता और विवेक से मूल उपादान ही नष्ट हो गया।' जब तक उपादान है, तब तक पानी और खाद का महत्त्व है। यदि उपादान ही नहीं है तो कोई कार्य बनता ही नहीं है। ये सब निमित्त हैं और उपादान के होने पर ही सहायक बनते हैं। समुद्रपाल का निदर्शन उत्तराध्ययन का इक्कीसवां अध्ययन है, 'समुद्रपालीय'। उसका एक प्रसंग है। वणिक्-पुत्र समुद्रपाल अपने प्रासाद के झरोखे में बैठा नगर की सुषमा को देख रहा था। उस समय उसने एक चोर को देखा। चोर को वध के लिए ले जाया जा रहा था। उसे देख उसका मन वैराग्य से भर गया। उसका मन बोल उठा-अहो ! यह अशुभ कर्मों का दुःखद अवसान है-- तं पासिऊण संविग्गो, समुद्दपालो इण मब्बवी। अहोऽसुभाण कम्माणं, निजाणं पावगं इम।। इस घटना ने उसके मन पर गहरा असर किया। वह संसार से विरक्त हो मुनि बन गया। उसे एक चोर से अचौर्य की प्रेरणा मिल गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy