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जब धर्म अफीम बन जाता है
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तब कुछ संभव हो सकता है। सारी शक्ति राज्य से जड़ी हुई है। हिंसा की सारी शक्ति, संहारक शस्त्र उसके अधिकार में है। यदि सत्ता पर बैठे लोग इस दिशा में नहीं सोचते तो स्थिति कुछ दूसरी होती ।
यह इस युग की विशेषता माननी चाहिए- इस दुनिया में कुछ ऐसे लोग पैदा हुए हैं, जो अहिंसा की दिशा में सोचने लगे हैं। यह सबसे बड़ा आश्चर्य है --जिस राष्ट्र ने यह माना - साध्य की पूर्ति के लिए चाहे जैसा आलंबन लिया जा सकता है, उस राष्ट्र में अहिंसा का स्वर प्रखर हुआ है। साम्यवाद का यह सिद्धांत रहा -- यदि साध्य ठीक है तो उसकी पूर्ति के लिए हिंसा पर विचार करना कोई जरूरी नहीं है । साध्य पूरा होना चाहिए, चाहे वह कैसे भी हो, हिंसा का आलंबन लेने में कोई बाधा नहीं है। यह आस्था जिस राष्ट्र में थी, उसका स्वर बदला है, वह अहिंसा की भाषा में सोचने लगा है। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है।
अणुव्रत की भूमिका
आज अहिंसा को बल मिला है। प्रश्न है- उसे बल क्यों मिला? हम इस प्रश्न पर कुछ विचार करें। क्या उसमें अहिंसा के क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्तियों का योग है ? अहिंसक समाज रचना के लिए संकल्पित आंदोलनों की कोई भूमिका है ? हम अणुव्रत आंदोलन का संदर्भ लें। उसकी क्या भूमिका रही है ? प्रश्न हो सकता है - अणुव्रत आंदोलन उन तक पहुंचा या नहीं पहुंचा ? यदि हम वैचारिक दृष्टि से सोचें तो यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होती कि अणुव्रत के विचार ने एक शक्तिशाली वातावरण का निर्माण किया है। हमारा विचार का जगत् बहुत शक्तिशाली होता है। एक आदमी हिमालय की गुफा में बैठा निरंतर एक विचार करता है, अपने विचार की तरंगों को दुनिया में छोड़ता है। वे विचार के प्रकंपन इतने शक्तिशाली बनते हैं और न जाने दुनिया में किन-किन मस्तिष्कों को प्रभावित करते हैं। बहुत विचित्र है विचारों का संक्रमण और चंक्रण। विचार अज्ञात रूप में दुनिया के मस्तिष्क को इतना बदल देते है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक व्यक्ति ने दो वर्ष पहले कोई बात सोची और बहुत शक्तिशाली संकल्प के साथ सोची। हो सकता है - दो सौ वर्ष के बाद ये विचार के परमाणु, जो आकाशीय रेकार्ड में विद्यमान हैं, दुनिया में कहीं से कहीं जाकर किसी मस्तिष्क से टकरा जाए और उसके मस्तिष्क को प्रभावित कर दे, उसके विचारों की धुलाई कर दे।
विचार की शक्ति
अणुव्रत आंदोलन अहिंसा के शक्तिशाली वातावरण के निर्माण का अभियान
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