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चांदनी भीतर की
किसी ओर को दे दें। जॉन रस्किन ने मुस्कुराते हुए कहा-बहिन ! यह वही धब्बों वाला रुमाल है। यह तुम्हारा ही है। तुम देखो-जिस स्थान पर धब्बा था, उस स्थान पर कितना सुन्दर चित्र है। युवती ने देखा--रुमाल पहले से भी अधिक सुन्दर बन गया था। उसका उदास चेहरा खिल उठा। जॉन रस्किन बोले-धब्बा चित्र में बदल गया है। समाधान है अहिंसा
धर्म का काम है-धब्बे को चित्र में बदल देना । यदि धर्म अहिंसा के द्वारा धब्बों को चित्र में नहीं बदलता है तो वह वास्तव में धर्म नहीं रहता। अहिंसा ही एक ऐसा धर्म है, जो दुनिया के धब्बों को चित्र में बदल सकता है। आज विश्व-शांति की समस्या जटिल बनी हुई है। क्या कोई राष्ट्र उसे सुलझा सकेगा ? क्या अमेरिका उसे समाधान देगा ? या दुनिया की तीसरी-चौथी शक्ति प्रकट होगी और इस समस्या को सुलझाएगी? शस्त्र के बल पर विश्व-शान्ति की समस्या कभी नहीं सुलझेगी। शस्त्रों से समस्या सुलझती भी नहीं है, और अधिक उलझ जाती है। शस्त्रों के सहारे विश्व-शांति का सपना न कभी फलित हुआ है, न कभी फलित होगा। विश्वशांति की समस्या का एक मात्र समाधान है--अहिंसा । अहिंसा के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। आज विश्व की महान् शक्तियों ने इस सचाई का अनुभव किया है। रूस और अमेरिका ने इस सचाई को स्वीकार किया है। आज शस्त्रों के विस्तार की नहीं, परिसीमन की दिशा में चिन्तन चल रहा है। यह स्वर प्रबल बन रहा है-शस्त्रों का परिसीमन हो। हमें यह मानना चाहिए--जाने-अनजाने दुनिया की महान शक्तियों ने अहिंसा के महत्त्व को स्वीकार किया है। अहिंसा का पहला उपन्यास
वस्तुतः हिंसा अपनी मौत मरती है। हिंसा को कोई दूसरा मार नहीं सकता। झूठ अपनी मौत मरता है, कभी चल नहीं सकता। दुनिया में वही जिन्दा रह सकता है, जिसका आधार होता है। अशाश्वत के सहारे चलने वाला कभी ज्यादा चल नहीं पाता। एक दिन ऐसा आता है, अशाश्वत के घुटने टिक जाते हैं। हिंसा, आक्रमण, शस्त्र--ये सारे अनश्वर तंत्र हैं। ये कभी स्थायी नहीं रह सकते। हमें साधुवाद देना चाहिए गोर्बाच्योव को, रीगन और बुश को, जिन्होंने संसार के सामने अहिंसा का प्रथम उपन्यास लिखा । इतना सुंदर उपन्यास कोई लेखक नहीं लिख सका। अहिंसा के इस उपन्यास का लेखन कोई धार्मिक आदमी भी नहीं कर सकता, क्योंकि सारी शक्ति उनके हाथ में है। जिनके हाथ में हिंसा की शक्ति है, वे अहिंसा की बात सोचें
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