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मैं थामे हूं अपने भाग्य की डोर
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और परिस्थितियों को सफल न होने दें। हम यह प्रयास करें-ज्ञान जड़ न बने, शक्तियां कुठित न बने, आनन्द विलुप्त न हो जाए। यह सूत्र हाथ लगता है तो भगवान महावीर का, अनाथी मुनि का या जैन दर्शन का आत्मकर्तृत्व का सिद्धान्त कोरी दार्शनिक भावना नहीं रहेगी किन्तु हमारा अध्यात्म का सूत्र बनेगा। ___ आज इस सूत्र की बहुत जरूरत है। हमारी दिशा बदले। हम बाहर ही नहीं, भीतर में भी जाएं। अपनी अपूर्णताओं को देखें बिना, अपनी कमियों और कठिनाइयों को देखें बिना अपनी समस्याओं का गहराई से चिन्तन और अपना आत्मालोचन किए बिना हमारा देखने का कोण दूसरा बनेगा। दृष्किोण बदलता है तो सारी घटनाएं बदल जाती है। इसीलिए भगवान ने ज्यादा बल दिया सम्यक् दर्शन और सम्यक् दृष्टिकोण पर। थोड़ी-सी विपरीत घटना होने पर लोग बोलना बंद कर देते हैं, रूठ जाते हैं, भोजन भी बंद कर देते हैं। यह सारा चक्र जो चल रहा है, वह इसीलिए चल रहा है कि हम और निमित्त पर अटके हुए हैं। अध्यात्म की भाषा
अनाथी मुनि ने एक सुन्दर दर्शन दिया। यदि हम इन दो श्लोकों को निकाल दें तो अध्यात्म निष्प्राण बन जाएगा। यद्यपि दर्शन में पर बहुत चर्चा हुई हैं। ईश्वरवाद नैयायिक वैशेषिक ये ईश्वर कर्तृत्ववादी रहे। जैन-बौद्ध साख्य ये आत्मकर्तृत्ववादी रहे। पर यह सूत्र मूलतः अध्यात्म का है और अध्यात्म में भी निश्चय का है यह सूत्र । व्यवहार में परिस्थिति, वातावरण और निमित्तों को दोष दिया जा सकता है परन्तु अध्यात्म और निश्चय की भाषा में यह समझना चाहिए--अभी अध्यात्म का क ख ग भी नहीं समझा गया है। कितना बड़ा रहस्य अनाथी मुनि ने बात बात में प्रस्तुत कर दिया। आज भी हमारे सामने यह श्लोकद्वयी प्रस्तुत है। 'यत व्यक्तव्यं तत निशेषम्'--जो कहना था, वह इसमें शेष हो गया। इसके अतिरिक्त अध्यात्म का कोई वक्तव्य नहीं है। सारा अध्यात्म इसमें संपन्न होता है। ये दोनों श्लोक अत्यन्त मननीय हैं। हम इनका मनन करें। गहराई में जाने पर जो मिलेगा, वह हमारे जीवन के लिए आलोक बन जाएगा। जैसे अनाथी मुनि को इसका साक्षात्कार हुआ वैसे ही हमें भी इसका साक्षात्कार होगा, हमारे जीवन की दिशा भी बदलेगी और कुछ नया दीखेगा, जिसे हम आज तक देख नहीं पाए।
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