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________________ १५२ चांदनी भीतर की नहीं है, दुःख का संवेदन नहीं है। यह बात समझ में जाए तो महत्वपूर्ण सचाई उपलब्ध हो जाए। हमने दोनों को एक मान रखा है। बीमारी होने का मतलब है, दुःख को होना और दुःख होने का मतलब है-विपरीत परिस्थिति का होना । हमने इनको एक मान लिया, यही मिथ्या दृष्टिकोण है। आंतरिक है दुःख का संवेदन वस्तुतः दुख का संवेदन नितांत आंतरिक है। इसका संबंध केवल कर्म से है। वेदनीय कर्म से इसका सम्बन्ध है या इससे जुड़े मोहनीय कर्म से इसका संबंध है, किन्तु घटना का किसी से सम्बन्ध नहीं है। उसे कोई भी पैदा कर सकता है। वर्षा बरसती है और ठण्डी हवा चलती है। इसका सबके साथ संबंध है। उससे एक व्यक्ति को सर्दी लगती है। वह एक व्यक्ति को बहुत अच्छी लगती है। घटना तो एक है पर अनुभूति है अलग-अलग । प्रश्न है घटना समान होने पर भी अनुभूति में अन्तर क्यों? शरीर की प्रकृति का अंतर है या अपने संवेदन का अन्तर ? एक घटना होने से एक व्यक्ति तो रोने लग जाता है और इसी घटना से प्रभावित एक व्यक्ति कहता है--कोई बात नहीं, मुझे गहरे में जाना चाहिए। इन बास्य प्रकोपों से मुक्त रहना चाहिए। एक ही घटना से एक व्यक्ति क्रोधित होता है और एक आदमी अन्तर्मुखी हो जाता है, जागरूक बन जाता है। अगर सारा भार परिस्थितियों और निमित्तों पर डाल दें तो उत्तरादायित्व किसका होगा ? क्या उत्तरदायित्व परिस्थिति वहन करती है ? वह उत्तरदायित्व का भार नहीं ओढती। सारा उत्तरदायित्व व्यक्ति का है, यह अध्यात्म का बहुत बड़ा सत्य है। इसका जितना-जितना साक्षात्कार होता है उतना ही व्यक्ति सुख दुःख से परे होता चला जाता है। अध्यात्म का स्वर - मुनि ने जो बात कही है, वह अध्यात्म का स्वर है। एक पहुंचा हुआ व्यक्ति ही ऐसी अनुभूति की बात कह सकता है। यह कोरा दर्शन का सिद्धान्त नहीं है। यह अनुभूति का सिद्धान्त है। जो व्यक्ति इस भूमिका पर पहुंच जाता है, जो इस कर्म-शास्त्रीय गहन गुत्थी का समाधान पा जाता है, वह यही कहेगा कि-अप्पा कत्ता विकत्ता य--मेरी आत्मा ही कर्ता और विकर्ता है। कोई भी घटना होने पर हम निमित्तों को खोजते हैं, उन पर आरोपण कर देते हैं, इससे क्या होगा ? क्या हमारा मन अशान्त नहीं बन जाएगा। इससे मन का तनाव बढ़ेगा, बुद्धि कुंठित होगी और जो कुछ प्राप्त है, वह चला जाएगा। इसका परिणाम यह हुआ-निमित्त पैदा करने वाला सफल हो गया। वह चाहता ही है-अमुक व्यक्ति गिरे। उस स्थिति में हम निमित्तों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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