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________________ मैं थामे हूं अपने भाग्य की डोर कुछ श्रेयस्कर कार्य होता । यह तो ठीक वैसा हुआ, जैसे पुशओं का टोला काम करता है। उपादान की भूमिका पर जब हम केवल निमित्तों पर ही अटक जाते हैं, भीतर के स्रोत तक नहीं जाते, समस्या का समाधान नहीं होता। शायद इसीलिए स्थविरकल्पी को अधिक महत्त्व दिया गया। स्थविरकल्पी सबके साथ रहकर अपना नियंत्रण करता है। उस स्थिति में अनुशासित रहकर शांत सहवास करता है, जितेन्द्रिय रहता है, शायद यह बड़ी साधना है । अकेला जंगल में रहकर साधना करने से भी अधिक महत्वपूर्ण है शहर में रहकर साधना करना । एक साधक ने बीस-पच्चीस वर्ष हिमालय में रहकर साधना की । उसके बाद आश्रम में आकर बैठा तो लड़ाइयां करने लगा। साधना की कसौटी होती है। समुदाय में। १५१ अनाथी मुनि ने कहा- मैं वहां पहुंच गया हूं, जिसे उपादान की भूमिका कहे, निश्चय की भूमिका या आत्मदर्शन की भूमिका कहें। यह वह भूमिका है जहां आनन्द का स्रोत मिलता है, ज्ञान और शक्ति का स्रोत भी मिल जाता है। मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, मुझे मुनि क्यों बनना चाहिए ? घर क्यों छोड़ना चाहिए ? पेड़ के नीचे अकेला क्यों खड़ा होना चाहिए ? यह मैंने देख लिया । इस कर्तव्य का निर्णय मैंने स्वयं किया है, मेरे संकल्प की स्वतंत्रता ने किया है, मेरा संकल्प और स्वतंत्रता यह करा रही है और मैं मानता हूं कि मैं अपने कृत का स्वयं उत्तरदायी हूं। घटना और संवेदन हम सुख और दुःख का आरोपण भी दूसरों पर कर देते हैं । हमारा सारा ध्यान इसी पर अटका हुआ है। कोई घटना घटती है, तत्काल मन में आता है कि उसने ऐसा कर दिया, उसने ऐसा कह दिया। कोई निमित्त होता ही नहीं है, ऐसी बात नहीं है । अनेकांतवाद को मानने वाला निमित्तों को अस्वीकार नहीं करेगा । निमित्त हो सकते हैं पर निमित्त केवल घटना प्रस्तुत कर सकता है किन्तु सुख-दुःख नहीं दे सकता । सुख-दुःख का संवेदन होना एक बात है और सुख-दुःख की घटना पैदा कर देना बिलकुल दूसरी बात है। मलेरिया के कीटाणु मलेरिया पैदा कर सकते हैं । यक्ष्मा के कीटाणु यक्ष्मा पैदा कर सकते हैं। ये कीटाणु या वायरस एक बाहरी निमित्त पैदा कर सकते हैं। एक प्रशंसा का शब्द अहंकार को जगा सकता है। हम इस सचाई को समझें-- बीमारी होना एक घटना है और सुख-दुःख भोगना दूसरी बात है। क्या यह सम्भव है - बीमारी हो पर दुःख न हो ? यही तो अध्यात्म है- बीमारी है पर दुःख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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