SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवाद : नाथ और अनाथ के बीच होगी ? दोनों की भाषा एक नहीं हो सकती । भाव का भेद तो बहुत गहरी बात है, भाषा भी नहीं मिलती। क्योंकि भाषा और शब्द हमेशा भावों के अनुसार निकलते हैं। जो व्यक्ति जिस अर्थ को जानता है, वह उस भाषा को पकड़ लेगा । वह भाव को जानता नहीं है, इसलिए उसके मन में यह विचार उभरेगा अमुक व्यक्ति झूठ बोल रहा है, गलत बोल रहा है या अज्ञान पूर्वक बोल रहा है। यह एक जटिल प्रशन है। वही है नाथ हमारे सामने अनेकान्त का व्यापक दृष्टिकोण है। हमने उसे गहराई से समझा नहीं या उसका उपयोग नहीं किया। अगर अनेकान्त का गहरा अध्ययन हो तो शायद संघर्षो को कम करने की स्थिति आ जाए । उपचार की भाषा में जो राजा कह रहा था, वह गलत नहीं था। किन्तु मुनि निश्चय की भाषा बोल रहे थे--सम्राट् ! तुम्हारा कुछ नहीं है। तुम अलग हो, वह अलग है। नाथ तो वह होता है, जो अपने आपको जान लेता है। जब दोनों ने एक-दूसरे की बात को समझा, एक-दूसरे की अपेक्षा को समझा, अन्तर समाप्त हो गया। दोनों सहमत हो गए । राजा मुनि के चरणों में सिर झुका कर बोला- भंते! आपने बहुत कृपा की, बहुत अनुग्रह किया, मुझे एक नया दृष्टिकोण दिया । अनाथ कौन होता है और नाथ कौन होता, मैं यह समझ गया । जो व्यक्ति दूसरे पदार्थों पर अपना प्रभुत्व या अधिकार रखता है, वह सही अर्थ में नाथ नहीं होता । नाथ वह होता है, जो अपने पर अपना अधिकार रखता है । अपना नाथ वही हो सकता है, जिसके जीवन में व्रत आ जाता है | नाथ होता है, रक्षा करने वाला, योगक्षेम करने वाला । व्रत से अधिक शायद दुनिया में कोई बचाने वाली शक्ति और तत्त्व नहीं है। मुनिवर ! मुझे बहुत अच्छा संबोधन दिया दोनों एक बिन्दु पर आ गये, भाव और भाषा की दूरी मिट गई । स्व और स्वामित्व का प्रश्न १४७ एक बहुत बड़े सत्य का उद्घाटन इस अध्ययन में हुआ है। अध्यात्म का महत्त्वपूर्ण सूत्र है -- जो व्यक्ति नाथ की भूमिका पर पहुंचता है, वही व्यक्ति वास्तव में आध्यात्मिक बन सकता है। इस भूमिका पर आए बिना अध्यात्म की बात सोची नहीं जा सकती। बहुत जटिल प्रश्न है ( मुनि का धन क्या है? वह उसका स्व है अतः वह उसका स्वामी है । तप उसका 'स्व' है इसलिए वह तपस्वी है । योग उसका स्व है इसलिए वह योगी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy