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चांदनी भीतर की
क्यों होता है संघर्ष
प्रश्न है--यह शब्दों का संघर्ष क्यों होता है? हम इस पर विचार करें। भगवान महावीर ने दो नयों का प्रतिपादन किया-निश्चय नय और व्यवहार नय। निश्चय नय अपना व्यक्तिगत होता है और हमारा काम चलता है व्यवहार नय से। व्यवहार है एक ही पदार्थ में निमित्त और संयोग से होने वाले भावों का ग्रहण । व्यवहार नय के दो भेद हैं
सद्भूत व्यवहार--एक ही द्रव्य में भेद करने वाली दृष्टि। असभूत व्यवहार--अनेक भिन्न द्रव्यों में अभेद दृष्टि ।
असद्भूत व्यवहार के दो भेद हैं-उपचरित असद्भूत और अनुपचरित असद्भूत। अनुपचरित व्यवहार
हम उपचार से चलते हैं। दो वस्तुएं एक साथ रह रही हैं। दूध अलग है, पानी अलग है। आत्मा अलग है, शरीर अलग है। एक क्षेत्र में दोनों रह रहे हैं। शरीर और आत्मा-दोनों साथ-साथ रह रहे हैं। अगर कहा जाए-शरीर को अलग करो और आत्मा को अलग करो तो बचेगा क्या ? इतने मिले हुए हैं ये दो पदार्थ। उनमें यह शरीर मेरा है, इस प्रकार का आरोपण करना, उच्चारण करना असद्भूत अनुपचरित व्यवहार है। उपचरित व्यवहार
दूसरा प्रकार है असद्भूत उपचरित व्यवहार का । हम दो पदार्थों में, जो बिल्कुल अलग-अलग रह रहे हैं, उनमें एकत्व का आरोपण कर देते हैं। मेरा घर, मेरा धन, यह आरोपण हो गया। घर अलग है, धन अलग है और मैं अलग हूं पर आरोपण कर दोनों को एक मान लिया। यह असद्भूत उपचरित व्यवहार है। भेद है भूमिका का ___अनाथी मुनि जो कह रहे हैं और सम्राट् श्रेणिक जो कह रहे हैं, उन दोनों की हम मीमांसा करें। कहां कौन सा नय बोल रहा था। अगर हम नय की दृष्टि की बात को समझें तो सम्राट् श्रेणिक और अनाथी मुनि अपने-अपने स्थान पर सही बात कह रहे थे। वे एक-दूसरे को नहीं समझ पा रहे थे क्योंकि उनमें सापेक्षता नहीं थी। राजा कह रहा था--मेरी सेना, मेरा नगर, मेरा महल, मैं उसका मालिक, यह उपचार है असद्भूत व्यवहार नय। उसके आधार पर मनुष्य ऐसा कहता है। किन्तु जब सचाई की दिशा में जाएंगे जो यह बात ठीक नहीं होगी। मुनि सच्चाई की भूमिका पर खड़े थे और राजा असद्भूत व्यवहार की सीढ़ी पर खड़ा था। दोनों की बात एक कैसे
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