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________________ संवाद : नाथ और अनाथ के बीच १४५ का योग मिला। एक दिन अचानक आंख में पीड़ा हो गई। असह्य पीड़ा से मैं बैचेन हो उठा। इतनी भंयकर वेदना हुई कि मैं सहन नहीं कर सका। उस अवस्था में मेरे पिता ने दूर-दूर से वैद्यों को बुलाया, मेरी चिकित्सा करवाई। बहुत घन लगाया। पिता ने नोलियों का मुंह खोल दिया। मेरी माता, मेरे छोटे बड़े भाइयों ने, मेरी पत्नी ने जितना करना था, कर लिया। मेरी आंख की पीड़ा समाप्त नहीं हुई। मैं कराहता रहा। वैद्य आए, प्राणाचार्य आए। अनेक प्रकार की चिकित्साएं की। न जाने कितनी दवाइयां कहां कहां से मंगवाई। यदि हनुमान होता तो संजीववनी बूटी भी मंगवा लेते। पर कुछ भी अर्थ नहीं निकला। राजन ! ये मेरी अनाथता थी। मुनि का संकल्प जीवन में कुछ ऐसे क्षण आते हैं, जब आदमी गहराई में चला आता है। जब व्यक्ति गहराई में जाता है, उसे समाधान मिल जाता है। दुनिया में किसी को समाधान मिला है तो वह भीतर गहराई में डुबकी लगाने के बाद ही मिला है। बाहर-बाहर भटकने वाले को कभी समाधान नहीं मिलता। मैंने एक संकल्प किया--एक बार इस असह्य चक्षु वेदना से मुक्त हो जाऊं तो इस विपुल वैभव को छोड़ कर मुनि बन जाऊं। सोते समय जो संकल्प किया जाता है, वह ज्यादा फलित होता है। प्रेक्षाध्यान में यह सुझाया जाता है--सोते-सोते निश्चय--संकल्प को दोहराएं और संकल्प को दोहराते-दोहराते नींद में चले जाएं, वह संकल्प अवचेतन मन तक पहुंच जाएगा। जो बात अवचेतन मन के स्तर पर पहुंच जाती है, वह क्रियान्वित हो जाती है। रात बीती : दर्द बीत गया ____ अनाथी मुनि ने कहा--सम्राट् ! मैं इस संकल्प के साथ सो गया। मुझे कभी नींद नहीं आती थी पर उस दिन नींद आ गई। मुझे अनुभव हुआ-जैसे-जैसे रात बीत रही है वैसे-वैसे वेदना बीतती जा रही है। सम्राट् ! सुबह उठा तो ऐसा लगा-वेदना समाप्त हो गई है। मैं एकदम स्वस्थ हो गया हूं। ___ एक चमत्कार हो गया। मैंने सबको अपना संकल्प बताया-अब मैं नाथ बनूंगा, अनाथ नहीं रहूंगा। राजन् ! मैं परिवारजनों की अनुमति लेकर मुनि बन गया। अपना ही नहीं, सारे संसार का नाथ बन गया। मुनि ने कहा-राजन ! यह मेरी अनाथता थी। दूसरा कोई किसी का नाथ नहीं बन सकता। क्या तुम स्वयं अनाथ नहीं हो ? सम्राट् क्या बोले, कुछ बोलने को शेष नहीं रहा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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