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________________ चांदनी भीतर की शक्ति नहीं है। जितने हम बुद्धिमान् हैं उतने बुद्धिमान् सामने वाले भी हो सकते हैं, वे हमसे अधिक बुद्धिमान भी हो सकते हैं। उनमें भी चिन्तन की शक्ति है, विचार की शक्ति है। चिन्तन की शक्ति, विचार और बौद्धिक क्षमता का अन्तर इसका कारण नहीं शिष्य ने जिज्ञासा की-गुरुदेव ! फिर अन्तर कहां है ? जातिवाद के समर्थन का कारण क्या है ? आचार्य ने कहा--मनुष्य के व्यवहार के पीछे उसकी वृत्तियां काम करती हैं। व्यक्ति की प्रत्येक मान्यता की पृष्ठभूमि में अनेक वृत्तियां सक्रिय रहती हैं। जितनी समाज की मान्यताएं बनी हैं, संगठन की मान्यताएं बनी हैं, उनके पीछे छिपी हुई वृत्तियां काम करती हैं। यह जातिवाद का प्रश्न भी बुद्धि का नहीं है, मनुष्य की मान्यता का है और इसके पीछे भी एक वृत्ति काम कर रही है। चाहे सामाजिक मान्यता हो, सम्प्रदायगत मान्यता हो, जातिगत मान्यता हो, उसकी पृष्ठभूमि में मनुष्य की मनोवृत्ति विद्यमान रहती है। जातिवाद का आधार मनोविज्ञान ने वृत्तियों का एक जाल बिछाया है। उसके कई वर्गीकरण किए हैं, किन्तु यदि हम जैन मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो मौलिक मनोवृत्ति एक है-राग। शेष वृत्तियां उसका विस्तार हैं। सब वृत्तियों में मूल है--राग, प्रियता का संवेदन। राग है तो दूसरी वृत्ति बनेगी--द्वेष । द्वेष मूल मनोवृत्ति नहीं है। राग है तो द्वेष का होना भी अनिवार्य है। राग है, इसका मतलब लोभ और प्रियता है। प्रियता है, राग है तो अप्रियता और द्वेष का होना जरूरी है, घृणा और अहंकार का होना भी जरूरी है। अहंकार दिखाई देता है, ममकार दिखाई देता है, राग और द्वेष छिपे रहते हैं। व्यक्ति कहता है-मैं धनवान हूं, मैं पढ़ा लिखा हूं, मैं सत्ताधीश हूं-यह अहंकार है। जितनी उपाधियां लगती हैं, जितने विशेषण लगते हैं, वे सारे व्यक्ति के अहंकार को प्रकट करने वाले हैं। जो जातिवाद की मान्यता बनी है, उसका एक आधार है अहंकार । व्यक्ति में अहंकार होता है और वह अपने अहंकार का प्रदर्शन करना चाहता है। अहंकार की अभिव्यक्ति का एक रूप बनता है--जातिवाद । अहंकार : अनेक रूप __ प्रश्न हो सकता है-हिन्दुस्तान में ही जातिवाद को इतना बढ़ावा क्यों मिला? बाहर उसका प्रसार क्यों नहीं हुआ ? हिन्दुओं में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं। दूसरी अनेक जातियों में भाईचारा बना हुआ है। क्या वे जातियां नहीं हैं ? क्या दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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