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जातिवाद तात्त्विक नहीं है
शिष्य की जिज्ञासा
आज से दो हजार वर्ष पहले एक संघर्ष चलता था। समाज में एक मन्द्र था। एक ओर जातिवाद का समर्थन किया जा रहा था, दूसरी ओर जातिवाद का खंडन किया जा रहा था। एक शिष्य ने आचार्य से जिलासा की गुरुदेव ! यह बात हर आदमी समझ सकता है कि किसी व्यक्ति से घृणा नहीं करनी चाहिए। फिर यह जातिवाद वर्वा का विषय क्यों बना? यह एक दार्शनिक विषय बन गया है। इस पर बड़े-बड़े अन्य लिखे जा रहे है। श्रमण परम्परा के एक विज्ञान कहते है
वेदः प्रामाण्य कस्यचित् कर्तृवापा, स्नाने धर्मेण्डा जातिवादावलेपः।
संतापारमः पापहानाय तेषतप्रजाना पंचविन्हानि जाइये।। जड़ता के पांच लक्षण है। उनमें एक है जातिवाद का अहंकार ।
एक ओर जातिवाद को समर्थन मिल रहा है, दूसरी ओर उसे जड़ता का लक्षण माना जा रहा है। क्या समर्थन करने वालों में इसनी भी समझ नहीं है कि वे इस सचाई को समझ सकें ? स्वाभाविक प्रश्न
यह प्रश्न बहुत स्वाभाविक है। यह एक शिष्य का ही प्रश्न नहीं है, हजारों-हजारों लोगों के मानस में यह प्रश्न उभरता है। बहुत सूक्ष्म और गंभीर बात को समझने में कठिनाई हो सकती है। एक सूई की नोक टिके उतने स्थान में अनन्त जीव है, यह समझना कठिन हो सकता है किन्तु एक आदमी दूसरे आदमी को नीचा न माने, भाई माने, उसके साथ भाईचारे का व्यवहार करे, इतनी स्थूल बात समझने में दुविधा क्यों होती है ? अनेक ग्रन्थों के लेखक, तार्किक और सममवार व्यक्ति भी इतनी स्थूल बात समझ नहीं पाते, क्या यह विस्मयजनक नहीं है? प्रश्न गुदि का नहीं है
आचार्य ने कहा-वत्स ! तुम्हारा प्रश्न उचित है पर यह प्रश्न बौद्धिकता का नहीं है। प्रश्न यह नहीं है कि सामने वाले व्यक्ति में समझ नहीं है, चिन्तन या विचार की
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