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संवाद : नाथ और अनाथ के बीच
आश्चर्य से भर गया। यह क्या? उससे रहा नहीं गया। सम्राट् मुनि की सन्निधि में आया, प्रणाम कर बोला--भंते! आप तरुण हैं। अभी आप दीक्षित हो गए? अभी तो भोग भागने की अवस्था है। यह आपने क्या किया?
मुनि ने ध्यान मुद्रा को सम्पन्न किया। मुनि बोले- भैया क्या करूं। मुझे मुनि
बनना पड़ा।
क्यों बने ?
अनाथ था इसलिए मुनि बन गया ।
श्रेणिक ने देखा -- अनाथ जैसा लगता तो नहीं है। सम्राट् ने कहा- भंते! ऐसा नहीं लगता कि आप अनाथ हैं। आपका यह यौवन, आपका यह रूप, आपकी यह सम्पदा बतला रही है कि आप बहुत सम्पन्न परिवार के हैं, अनाथ तो नहीं हैं। नहीं, नहीं मैं अनाथ ही हूं और इसीलिए मैं मुनि बना हूं। तुम भी अनाथ हो
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राजा ने मुनि की भाषा को सुना पर उसका अर्थ नहीं समझा, भाव नहीं समझा। भाव और भाषा के बीच दूरी रह गई ।
सम्राट् ने कहा- भंते! कोई बात नहीं । आज मैं आपका नाथ बनता हूं। आप अनाथ थे इसलिए मुनि बने, लेकिन अब अनाथ नहीं हैं। आप मेरे महलों में चलें, आराम से रहें। मेरे पास सुख-सम्पदा की कोई कमी नहीं है।
राजा की यह भाषा मुनि को मान्य नहीं हुई। मुनि बोले- भाई ! तुम भी कैसे आदमी हो ? इतनी भी बात नहीं समझते कि तुम तो स्वयं अनाथ हो और मेरे नाथ बनने चले हो । पहले स्वयं को देखो, फिर नाथ बनने की बात सोचना । तुम स्वयं अनाथ हो, मेरे नाथ कैसे बनोगे ?
यही है भाव और भाषा का टकराव । यह संघर्ष बहुत चलता है। इस संदर्भ में भाव प्रेक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण है । हम भाषा की पृष्ठभूमि को जानने के लिए भावों को पढ़ने का अभ्यास करें। उसके बिना यह टकराव शायद कभी मिटने वाला नहीं है। राजा का प्रतिवाद
राजा का अहंकार फुफकार उठा । ढाई हजार वर्ष पहले का जमाना और उस समय का सम्राट् इतने वैभव, इतने बड़े राज्य का स्वामी । इस शब्द को कैसे सहन करता । यदि मुनि के स्थान पर कोई और होता तो उसका आक्रोश न जाने क्या परिणाम लाता ? राजा ने सोचा--मुनि का कोई दोष नहीं है। मुझे जानता नहीं है । जब तक परिचय न हो भला कौन क्या करे ? यह अपरिचित है इसलिए अनाथ बता
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