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चांदनी भीतर की उसका निर्णय करेगी और फिर बोलने वाला चौथा है मुख । ये चार मिल गये-कान से सुना, मन ने उसको ग्रहण दिया और विवेक मस्तिष्क ने उसको एक अर्थ बोध दिया, फिर वाणी ने उसे उच्चरित किया। इतना पूरा तंत्र मिलता है, तब एक कार्य निष्पन्न होता है। जहां एक के हाथ में शासन नहीं होता वहां संघर्ष तो होता ही है। कहा गया अनेक हाथों में शासन होता है तो संघर्ष होना स्वाभाविक है। यह शायद लोकतंत्र के पहले लिखा गया है, आज की बात नहीं है। आज तो अनेक लोगों का शासन होता है। जहां अनेक हाथों में शासन होता है वहां क्या होता है, यह भी स्पष्ट है। यह हमारा सारा तंत्र है, जिसको कहते हैं, संभाग, परस्पर में विनिमय। संभाग होना एक बात है और एक दूसरे तक पहुंचना दूसरी बात है। इसकी इतनी जटिल प्रक्रिया है कि पूरी बात कभी पकड़ में नहीं आती। व्यक्ति क्या कहना चाहता है, हम कभी पकड़ नहीं पाते हैं इसीलिए किसी व्यक्ति के साथ न्याय नहीं होता। भाषा कभी न्याय नहीं कहती। बहुत सुन्दर लिखा गया--
भाषा क्या है ? भावों का लंगडा सा अनुवाद । भाव और भाषा की दूरी
भाषा भावों का कभी पूरा प्रतिनिधित्व कर नहीं सकती और यही संघर्ष का कारण बनता है। वही भाषा जब पत्र में लिखी जाती है तब और अधिक अनर्थ हो जाता है। भाव और भाषा में दूरी होती है और परस्पर पत्राचार चलता है, इसका अर्थ है-लड़ाई का एक गढ़ बनाना, किला खड़ा कर देना । एक व्यक्ति ने पत्र दिया। दूसरे ने उसका उत्तर दिया। फिर तीसरे ने उत्तर दिया और लड़ाई आगे बढ़ती चली गई। कई बार समस्या सुलझाने के बजाय उलझ जाती है। यदि पत्राचार को छोड़, आमने-सामने बैठकर बात की जाए तो समाधान निकल आए। जब दो व्यक्ति मिलते हैं, एक-दूसरे की भाषा को ही नहीं, भावों को भी पढ़ते हैं। संघर्ष तब मिटता है, जब व्यक्ति भाव से भाव को पढ़ना सीख जाए। जहां भाषा समाप्त हो जाए, मौन बन जाए, वहां समाधान मिलता है। शायद इसीलिए कहा गया--जहां गुरु बोलता है, वहां संशय का छेद नहीं होता। जहां गुरु मौन होता है, वहां संशय छिन्न हो जाता है।
गुरोस्तु मौनमाख्यानं शिष्यास्तु छित्रसंशयः का बीज जुड़ा रहता है।
भाषा के साथ संघर्ष। में अनाथ हूं
सप्राट् श्रेणिक उद्यान में क्रीड़ा करने के लिए आया। उसने देखा-एक पेड़ वे नीचे युवा मुनि खड़ा है। उसका सौन्दर्य जैसे बाहर झांक रहा था। श्रेणिक देखकर
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