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गणितीय दृष्टि
गणितानुयोग में धर्म के अनेक रूप बन जाते हैं। धर्म का एक प्रकार है- वीतरागता । आत्मा का जो वीतराग परिणमन है, उसका नाम है धर्म । धर्म के दो प्रकार है-श्रुत धर्म और चारित्र धर्म | धर्म के तीन प्रकार हैं--स्वाध्याय, ध्यान और तपस्या । धर्म के चार प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । संख्या के आधार पर धर्म के असंख्य प्रकार किए जा सकते हैं।
धर्म-कथा
चांदनी भीतर की
धर्म कथानुयोग की दृष्टि से विचार करें तो हमारे सामने अर्हन्नक का प्रसंग आएगा । अर्हन्नक व्यापारी था। वह जलपोत में व्यापार करने जाता। एक बार वह बहुत से व्यापारियों के साथ समुद्र में यात्रा कर रहा था। एक आकृति आसमान में . उभरी। उसने कहा- अर्हन्नक ! तुम धर्म को छोड़ दो वर्ना मैं तुम्हारा जहाज डुबो दूंगा । सब लोग कांपने लगे। सबने अर्हन्नक को समझाया- तुम कह दो कि मैं धर्म को छोड़ता हूं। अर्हन्नक ने कहा- धर्म मेरी आत्मा है, मेरी चेतना है। मैं अपनी चेतना को छोड़ नहीं सकता। धर्म कोई चोला नहीं है, जिसे गर्मी लगी तो उतार कर रख दिया । यह तो शाश्वत चेतना है, मैं अपनी चेतना को कभी छोड़ नहीं सकता। उस आकृति ने जहाज को अधर में उठा लिया। सब लोग कांपने लगे पर अर्हन्नक शान्त बैठा था । देव ने कहा - अर्हन्नक ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं। तुम मेरी यह तुच्छ भेंट --- --कुण्डल युगल स्वीकार करो।
महत्त्व है स्वरूप का
धर्म आत्मा का स्वरूप है। जिन्होंने कथाओं के माध्यम से धर्म के स्वरूप को समझा है, वे यह मानते हैं--धर्म कोई बाहरी आरोपण नहीं है, थोपा हुआ नहीं है धर्म कोई कृत नियम नहीं हैं। धर्म वास्तव में आत्मा का स्वभाव है। एक व्यवस्था होती है और एक धर्म । व्यवस्था का आरोपण होता है पर धर्म का आरोपण नहीं होता। अंगों का आरोपण हो सकता है, आत्मा का आरोपण कभी नहीं हो सकता । शरीर के एक-एक अंग का प्रत्यारोपण किया जा सकता है किन्तु क्या किसी के प्राण का भी प्रत्यारोपण किया जा सकता है ? धर्म कोई प्रत्यारोपण का तत्त्व नहीं है, वह ध्रुव, नियत और शाश्वत है । वह है आत्मा की पवित्रता, वीतरागता । जैन दर्शन में धर्म पर विचार किया गया। चाहे धर्म का पहला बिन्दु है, चाहे धर्म का अंतिम बिंदु है, दोनों के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। पहला बिन्दु है-एक बूंदी वीतरागता और अंतिम स्वरूप है पूरा लड्डू वीतरागता । बूंदी का भी वही स्वाद है और लड्डू का भी वही
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