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मोम के दांत और लोहे के चने
छोड़ दिया है पर जरा यह भी सोचो आदमी को वही काम करना चाहिए, जिसमें कोई न कोई रस हो । बालू को कोई खाए तो कैसा स्वाद आता है, उसमें कोई स्वाद नहीं होता । एक कण भी कवल के साथ आ जाए तो उसे थूकना पड़ता है। कितना निःस्वाद है । साधुपन भी ऐसा ही नीरस है। इस जीवन में कितना रस है ! कितना सरस है यह जीवन ! इसमें रस ही रस है । परमात्मा क्या है ? जो रस है, वही परमात्मा है । यह नीरस जीवन अच्छा नहीं लगता। साधुपन बालू की तरह बिल्कुल नीरस है ।
निराशावाद
पश्चिमी लोग भारतीय दर्शन पर यह आरोप लगाते हैं--भारतीय दर्शन निराशावाद या नीरसवाद है। कहीं सरसता है ही नहीं । जीवन को सुखाओ, जीवन को नीरस बनाओ। कोरा पलायनवाद है। यह आरोप उन्होंने ही नहीं, मृगापुत्र के माता पिता ने भी लगाया--- [--बेटा ! यह श्रामण्य बालू खाने की तरह नीरस है । इस नीरस मार्ग को चुनकर तुम क्या करोगे ?
माता-पिता ने अनेक तर्क प्रस्तुत किए देखो ! तुम अपने को तौलो। तुम्हारी शक्ति कितनी है ! तुम इसमें सफल कैसे बनोगे ? हमें कोई कठिनाई नहीं है। तुम भले ही साधु बनो, हम मनाहीं नहीं करेंगे। पर ऐसा न हो जाए तुम कल फिर विचलित हो जाओ।
मुनि बनने वाले व्यक्ति के सामने आज भी यह तर्क आता है--साधु बन रहे हो, हमें कोई कठिनाई नहीं है । यदि भविष्य में साधु-जीवन के कष्टों को न सह पाए तो क्या होगा ? इस तर्क के पीछे चिन्ता शायद भविष्य की नहीं होती, चिन्ता वर्तमान मूर्च्छा की होती है।
चिन्ता माता-पिता की
माता-पिता की भी यही चिन्ता थी- आगे क्या होगा ? कैसे सफल बनोगे ? कितना कठोर मार्ग ! तुम इस पर जरा ध्यान दो । साधुपन में निरंतर एक दृष्टि से रहना है। सांप एक दृष्टि वाला होता है। सांप में त्राटक की शक्ति बड़ी तेज होती है । अनिमेष दृष्टि सांप में जितनी तेज होती है उतनी साधना शायद आदमी के लिए भी कठिन है। अजगर शिकार के लिए जाता नहीं है, पर उसकी दृष्टि के सामने कोई आ जाता है और यदि वह उसकी ओर दृष्टि फेंक देता है तो व्यक्ति सम्मोहित हो जाता है, उसके लिए शिकार बन जाता है। सांप भी ऐसा ही होता है। वह जिस पर दृष्टि डाल देता है, खतरा बन जाता है। कुछ सर्प ऐसे होते हैं, जिन्हें हम दृष्टि विष सर्प कहते हैं। दृष्टि विष का एक अर्थ यह है--सांप ने अपनी अनिमेष दृष्टि से जिस
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