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मोम के दांत और लोहे के चने
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अहिवेगन्तदिट्ठीए, चरित्चे पुत्तदुच्चरे।
जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुक्करं।। माता-पिता के भय का एक चित्र बना दिया। बिना तूलिका और बिना रंग के इतना भीषण चित्र बनाया, यदि कोई कमजोर होता तो उसे देखकर कांप उठता। अहं का उद्दीपन
पिता ने कहा-पुत्र ! तुम राजकुमार हो, तुम्हें जनता पर शासन करना है। तुम्हारे पर स्वामित्व का भार है। तुम्हारा हाथ दाता जैसा रहेगा किन्तु याचक जैसा नहीं होगा। कौन दाता है और कौन याचक है, यह कहने और पूछने की जरूरत नहीं होती। हाथ की मुद्रा अपने आप सूचित कर देती है। तुम दाता हो पर साधु बनने पर तुम्हें भिक्षा मांगनी पड़ेगी। यह कापोती वृत्ति तुम्हें स्वीकार करनी पड़ेगी। घर-घर भिक्षा के लिए जाना पड़ेगा। क्या तुम्हारे जैसे राजकुमार के लिए यह उचित है ?
माता-पिता ने उसके अहं को पकड़ा। अहं बहुत जटिल वृत्ति है। हिंसा, अब्रह्मचर्य, वोरी और परिग्रह की वृत्तियां जटिल हैं किन्तु अंहकार की वृत्ति इनसे कम जटिल नहीं है। पता नहीं, इसका महाव्रत क्यों नहीं बना ? एक महाव्रत है विनम्रता का, अहंकार विलय का । बहुत सारी बातें छूट जाती हैं पर अहंकार की ग्रन्थि का भेदन नहीं होता । शायद सबसे ज्यादा साधुता में कोई कठिन बात है तो वह है अहंकार की वृत्ति का विलय। बड़े-बड़े त्यागी तपस्वी ब्रह्मचारी और अपरिग्रही हो जाते हैं फिर भी अहंकार का नाग समय-समय पर फुफकारने लग जाता है। संप्रदायों में जो बहुत सारे अलगाव आए हैं, जो पद लोलुपता की समस्या बढ़ी है, उसके पीछे अहंकार ही मुख्य कारण है। विनम्र होना और अहंकार का विसर्जन करना शायद कटिनतम काम है।
माता पिता ने मृगापुत्र के अहंकार को उभारा-तुम कौन हो पुत्र ? तुम राजकुमार हो। कितना वैभव है तुम्हारे पास ! क्या तुम भीख मांगते फिरोगे ? मृगापुत्र का उत्तर
मृगापुत्र ने इन बातों को गंभीरता से सुना । माता-पिता ने सोचा- अंगुली घाव पर टिकी है, कुमार अपना मन बदल लेगा। किन्तु कुमार का मन विचलित नहीं हुआ।
मृगापुत्र बोला-तात ! मुझे कोई कठिनाई नहीं है। मैंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है। किसका साक्षात्कार ?
आपको उसका पता नहीं है। आप भी भूल गए होंगे, काफी लम्बा समय बीच में निकल गया है।
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