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________________ ११७ वह नहीं खाऊंगा। हम सब खाते हैं और यह नहीं खाता। इससे हमें दुःख होता है। आप इसे समझाएं। हम तो अच्छी चीजें खाते हैं और यह सबका त्याग कर देता है। मैंने कहा- क्या में खाने के लिए समझाऊं ? त्याग और संयम तो अच्छी बात मेरे पास बंगाल के संभ्रांत नागरिक दत्ता साहब बैठे थे। वे निःस्पृह साधक हैं। उन्होंने कहा--तुम इसके चिन्तन में हतक्षेप क्यों करती हो ? इसका अपना चिन्तन है, तुम्हारा अपना चिन्तन है। तुम अपने ढंग से जीओ और यह अपने ढंग से जीए। यदि तुम्हें इसकी इतनी ही ज्यादा चिन्ता है तो तुम भी ये चीजें खाना छोड़ दो। शाश्वत स्वर माता-पिता मृगापुत्र को यह समझाना चाहते थे-तुम साधु मत बनो किन्तु उनके मन में यह भावना नहीं जागी-तुम साधु बन रहे हो तो हम भी साधु बनेंगे। ऐसे काम में साथ देना कोई नहीं चाहता। जब तक धारणा नहीं बदलती, व्यक्ति का दृष्टिकोण नहीं बदलता। जब तक व्यक्ति शरीर में बैठा हुआ है तब तक वह आत्मा में रहने वाले का साथ देना भी नहीं चाहता और दे भी नहीं सकता। शरीर की सीमाओं को समझना होगा। जब तक हम शरीर और चेतना के विभिन्न स्तरों को नहीं जानेंगे तब तक सबकी व्याख्या नहीं कर सकेंगे। आज मनोविज्ञान भी बहुत सारी समस्याओं की व्याख्या नहीं कर सकता। वह इसलिए नहीं कर सकता कि उसकी सीमा चेतना के कुछ स्तरों तक जाती है। वह आत्मा के स्तर पर अभी नहीं पहुंचा है। जब तक हम आत्मा के स्तर पर नहीं चले जाते तब तक सारे प्रश्नों का विवेचन और समाधान नहीं कर सकते। सारे प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए देह की सीमा को पार कर आत्मा की सीमा में प्रवेश करना होता है। एक आदमी के मन में नरम, गरम और मुलायम पदार्थ खाने की लालसा होती है और एक आदमी सब कुछ छोड़ कर अनशन ले लेता है। यह आश्चर्य ही है। ऐसा क्यों होता है ? यह देह की सीमा से परे का स्वर है। जब व्यक्ति देह की सीमा को पार कर जाता है, आत्मा की सीमा में प्रवेश कर जाता है तब सारा चिन्तन का प्रकार, खान-पान और व्यवहार का प्रकार बदल जाता है। ऐसा ही परिवर्तन मृगापुत्र में घटित हुआ। परिवर्तन के क्षणों में निकला वह स्वर शाश्वत स्वर बन गया--मुझे इस संसार में क्षण भर के लिए भी आनंद नहीं मिलता, मैं वहां जाना चाहता हूं, जहाँ आनंद ही आनंद है। केवल मृगापुत्र की ही नहीं, आत्मा की झलक पाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की भाषा यही होगी। इस भाषा में शाश्वत सुख के अन्वेषण और उपलब्धि की घोषणा है, जिसका अनुभव देह की सीमा से परे जाने वाला कोई भी व्यक्ति कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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