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चांदनी भीतर की
इम शरीर अणिच्चं, असुई असुइसंभवं । असासया वा समिणं, दुक्खं केसाण भायणं॥ माणुसत्ते आरस्मि, वाही रोगाण आलए। जरा मरण पत्थम्मि खणं पि न रमामहं।। जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगाय मरणाणिय। अहो दुक्खो हु संसारे जत्थ कीसति जंतवो। खेत्तं वत्थु हिरण्णं च, पुतदारं च बंधवा।
च३ चाण इमं देह, गंतव्वमवसस्स मे।। शरीर की नश्वरता
मृगापुत्र ने अपनी बात को फिर दोहराया-मुझे इस अशाश्वत स्थान में कोई रति नहीं मिल रही है, आनंद और सुख नहीं मिल रहा है।
मृगापुत्र ने एक सचाई का उद्घाटन कर दिया। यह शरीर क्षणभंगुर है। पानी के बुबुदे की तरह है। किसी भी क्षण विलीन हो सकता है। यह एक दिन नष्ट होगा। दो वर्ष बाद, पांच वर्ष बाद या दस वर्ष बाद कभी भी यह शरीर छूट सकता है। इसका कोई भरोसा नहीं किया जा सकता। एक युवक ने कहा--मेरा भाई बीस वर्ष का था। एक दिन रात को दो बजे उठा । वह एक गिलास पानी पीकर पुनः सो गया
और सोया तो ऐसा सोया कि फिर कभी उठा नहीं। पानी पिया तब तक जीवित था। सोकर उठने के समय मृत था। जहां शरीर की यह स्थिति है वहां कैसे भरोसा किया जा सकता है? ऐसी घटनाएं प्रतिदिन घटित हो रही हैं-अमुक व्यक्ति का तीस वर्ष की अवस्था में हार्ट फैल हो गया और देखते ही देखते इस संसार से चला गया। शरीर की नश्वरता का जीवन्त साक्ष्य हैं ये घटनाएं। शरीर से सार निकालें
__जब तक अविद्या में व्यक्ति रहता है तब तक वह सोचता है--मुझे शरीर में रति मिले, मुझे शरीर से सुख मिले, शरीर को सुख-सुविधा मिलती रहे। जब तक असुविधा का पर्दा है तब तक वह शरीर से परे की बात सोच ही नहीं सकता। जब अविद्या का पर्दा हटता है, व्यक्ति की चिन्तन धारा बदल जाती है- मैं शरीर नहीं हूं चैतन्यमय आत्मा हूं। मैंने आत्मा को जान लिया है, अब इस शरीर में कोई रति नहीं है। जब शरीर में रति नहीं है तो विषयों में भी रति नहीं है। इस शरीर में सार नहीं है, इस शरीर से सार को निकाला जा सकता है। मुझे इस शरीर में नहीं रहना है, इस शरीर का सार निकालना है।
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