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________________ जहां एक भी क्षण आराम नहीं मिलता १११ इतने दिन कभी यह स्वर नहीं सुना । आज अचानक ऐसे कैसे बोल रहा है ? वे कुछ बोल ही नहीं पाए। ऐसा लगा-आशाओं पर तुषारापात हो गया है। पूरे वातावरण में सन्नाटा सा छा गया। मृगापुत्र बोला--आपको यह बात सुनकर आश्चर्य हो रहा होगा। मैं संयम क्यों लेना चाहता हूं। आप देखें--हम शरीर में डूबे हुए हैं, यह सबसे बड़ी अविधा है। जो यह जान लेता है-मैं शरीर में नहीं हूं, चैतन्यमय आत्मा हूं उसे सारी विधाएं उपलब्ध हो जाती हैं। जिस क्षण यह अनुभूति होती है--मैं शरीर नहीं हूं उस अविद्यावान विद्यावान बन जाता है। एक क्षण में अनपढ़ आदमी विद्वान् बन जाता है ! न बहुत लम्बे समय तक पढ़ने की जरूरत है, न कुछ और करने की आवयकता है। मैं शरीर हूं, यह अनुभूति इस रूप में बदल जाए-मैं शरीर नहीं हूं। मृगापुत्र शरीर से हटकर आत्मा की अनुभूति में उतर चुका था। उसका सारा दृष्टिकोण बदल गया ! अपने वैराग्य के कारणों को प्रस्तुत करते हुए मृगापुत्र ने कहा-- 1. यह शरीर अनित्य है। 2. यह शरीर अशुचि है। 3. यह शरीर अशुचि से उत्पन्न हुआ है। 4. यह शरीर दुःख और क्लेशों का भाजन है। इसका उत्पत्ति स्थान भी अशुचिमय है। 5. यह शरीर अशाश्वत है। एक दिन इस शरीर को छोड़कर चले जाना है। 6. यह मनुष्य जीवन असार है। यह व्याधि और रोगों का घर है, जन्म और मरण से ग्रस्त है। 7. यह संसार दुःख बहुल है। जन्म दुःख है, मरण दुःख है, रोग और बुढ़ापा दुःख है। इस संसार में दुःख ही दुःख है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं। 8. मनुष्य भूमि, घर, पुत्री, स्त्री, बांधव और धन--इन सब को छोड़ कर अवश होकर चला जाता है। जिस संसार की यह स्थिति है, उसमें मुझे एक क्षण भी आनंद नहीं मिल रहा है इसलिए मैं मुनि बनना चाहता हूं, विराग के पथ पर बढ़ना चाहता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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