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चांदनी भीतर की
कहीं कहीं सब बातों को सही प्रमाणित करना होता है। जिस व्यक्ति ने कहा, वह सही है और जिसने कहा, मैंने नहीं सुना, वह भी सही है क्योंकि उसने उस बात को पूरा ग्रहण ही नहीं किया। जब ग्रहण ही नहीं किया तो धारणा और स्मृति कैसे होगी ? व्यक्ति जिस बात को सुनता है, उसे अवधानपूर्वक या रुचिपूर्वक नहीं सुनता है तो उसकी स्मृति नहीं रहेगी। यह तथ्य प्रत्येक व्यक्ति के संदर्भ में घटित होता है। अपनी बात
____ मैं स्वयं अपने आपको देखता हूं तो यह लगता है--अनेक बातें विस्मृत हो जाती हैं। साठ वर्ष पहले कंठस्थ किए हुए श्लोक आज भी याद हैं। साठ वर्ष पहले दीक्षा ली, तब क्या-क्या घटित हुआ, यह याद है। आज कुछ ऐसी बातें भी भूल जाते हैं, जो दस दिन पहले ही सुनी हैं। ऐसा क्यों होता है ? कहा जाता है--पुरानी स्मृतियां, बचपन की बातें याद रह जाती हैं। किन्तु एक अवस्था आने पर स्मृति कमजोर होने लग जाती है। ऐसा कुछ कारण हो सकता है पर यह भी पूर्णतः सही नहीं है। काम की बात आज भी याद रह जाती है। कोई नया श्लोक सुना, कोई अच्छी कथा पढ़ी, जिस बात के प्रति आकर्षण पैदा हुआ, वह याद रह जायेगा । उस कथा तथा श्लोक का उचित अवसर पर उपयोग भी कर लेंगे। वस्तुतः स्मृति कमजोर नहीं है, धारणा कमजोर है। जिसका अंकन हमारे धारणा के केन्द्र में नहीं होती, वह याद नहीं आती।
आदमी सारी बातों की धारणा कर ही नहीं पाता। यदि वह दिन भर होने वाली निकम्मी बातों की धारणा करता चला जाए तो पागल बन जाए, उसका दिमाग खोखला हो जाए। आदमी समझदार और चतुर है, वह केवल काम की बात को दिमाग में रखता है। जो कबाड़खाना लगता है, उसे बाहर फेंक देता है। कबाड़खाना धारणा करने की जरूरत भी क्या है? मैं यह यह मानता हूं-जैसे जैसे मुनि योगी बनेगा, अच्छा साधक बनेगा उसकी स्मृति कमजोर होती चली जाएगी, वह निकम्मी बातों को भूलता चला जाएगा। बहुत बातें ऐसी ही होती हैं, जिन्हें सुनें और तत्काल विसर्जित कर दें। ग्रहण किया और रेचन कर दिया। ऐसा करने वाले व्यक्ति का दिमाग कबाड़खाना नहीं बन सकता। ध्यान दें धारणा पर
हम ध्यान केन्द्रित करें धारणा पर। किस बात की धारणा करें और किसकी धारणा न करें। जैन ज्ञान मीमांसा के तीन शब्द हैं-धारणा, वासना और संस्कार । पहले धारणा होती है फिर वह वासना में बदल जाती है, उसका एक संस्कार बन जाता है। उसकी विच्युति नहीं होती। जैसे ही कोई निमित्त मिला, पूर्व जन्म की स्मृति
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