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________________ चांदनी भीतर की में भी यह संन्यास परंपरा का प्रभाव है। तीन पुरुषार्थ में संन्यास की बात नहीं थी और यह बाद में जुड़ी है। जैन परंपरा की जीवन शैली _____ हम जैन परंपरा की जीवन शैली को देखें। प्राचीन काल में कुछ लोग मध्यम वय में दीक्षा लेते थे, कुछ अल्पवय में और कुछ अंतिमवय में। उस समय मध्यमवय या अल्पवय में दीक्षित कम होते थे। इस अवस्था में दीक्षा लेना सामान्य बात नहीं थी। ऐसा लगता है-प्राचीन काल में अधिकांश लोग अंतिमवय में दीक्षा लेते थे। आज कोई वृद्ध व्यक्ति दीक्षा लेता है तो लोग आश्चर्य करते हैं। एक परंपरा रही-पहले राजा बने, राज्य का संचालन किया और फिर ऋषि बने। चक्रवर्ती भरत ने पूरे भारत वर्ष पर शासन किया, लम्बे समय तक राज्य का संचालन किया और उसे छोड़ अंतिम वय में मुनि बन गए। राजा सगर भी ऐसे ही मुनि बने थे। सगर के साठ हजार पुत्र थे। इतने पुत्रों का पिता राज्य और परिवार को छोड़कर मुनि बन गया। एक नगर की जितनी आबादी होती है, उतना राजा सगर का परिवार था। वह एक युग था--प्रायः राजा राज्य का संचालन करते और उसका त्याग कर मुनि बन जाते। अंतिमवय में मुनि बनने वाले राजाओं की प्रलम्ब परंपरा इसका साक्ष्य है। केवली नौ वर्ष का एक परंपरा रही है जघन्य अवस्था में मुनि बनने वालों की। महावीर से पूछा गया--भंते ! केवली किस अवस्था में बनता है ? भगवान ने उत्तर दिया--नौ वर्ष की अवस्था में व्यक्ति केवली बन जाता है। नौ वर्ष, गर्भ के नौ महीनों सहित हैं। बाल मुनि की दीक्षा हो रही थी। लोगों ने कहा- इतनी छोटी अवस्था में दीक्षा! अभी तो मात्र नौ वर्ष का है। मैंने कहा--यह तो नौ वर्ष की अवस्था में मुनि बन रहा है किन्तु आगम कहते हैं--नौ वर्ष का बालक केवली बन जाता है। जब नौ वर्ष का बच्च केवली बन जाता है तब श्रमण बनना कौनसी बड़ी बात है। सत्तर अस्सी वर्ष के व्यक्ति मुनि नहीं बन पाते और नौ वर्ष का बालक मुनि बन जाता है। मुनित्व की दृष्टि से पहली अवस्था नौ वर्ष की है। दूसरी है मध्यमवय की अवस्था ! बीस वर्ष से चालीस वर्ष के बीच की आयु वाले व्यक्ति मुनि बनते हैं। ऐसे मुनियों की संख्या में कम नहीं है। तीसरी अवस्था है वार्धक्य की । प्रथमवय-बचपन में मुनि बनना आश्चर्य नहीं है। दूसरीवय--यौवन में मुनि बनना भी आश्चर्य नहीं है किन्तु तीसरी अवस्थ में मुनि न बनना सबसे बड़ा आश्चर्य है। व्यक्ति साठ वर्ष का हो जाए और उस मुनि बनने की भावना न जागे, क्या यह आश्चर्य नहीं है ? यह नहीं कहा जा सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003082
Book TitleChandani Bhitar ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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