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राजर्षियों की परंपरा
प्रथमवय में मुनि न बने, मध्यमवय में मुनि न बने, किन्तु पचास-साठ वर्ष के बाद भी मुनि बनने की भावना न जागे, योग के द्वारा शरीर को त्यागने की भावना न जागे, इसे जैन जीवन शैली का आश्चर्य या विडम्बना ही माननी चाहिए। युगीन अपेक्षा
आज अपेक्षा है-जैनों की जीवन-शैली निश्चित की जाए। एक भाई ने लिखा-- आचार्यजी ! मैंने सुना है आपने जीवन की शैली निर्धारित की है, उसका प्रशिक्षण दिया जा रहा है। मेरे मन की प्रबल भावना है--मैं आपकी सन्निधि में आकर उसका प्रशिक्षण लूं। जीवन शैली का ज्ञान बहुत महत्त्वपूर्ण है। हम राजर्षियों के इतिहास को केवल पढ़ने की दृष्टि से न पढ़ें। हम इतना ही न मानें- राजा भरत भारत वर्ष के राज्य को त्याग कर मुनि बने, राजा सनत्कुमार भी राज्य त्याग कर मुनि बन गए। राजा दशार्णभद्र और उद्रायण भी राज्य को त्याग मुनि बने । शांतिनाथ भी चक्रवर्तित्व को छोड़कर मुनि बने, जिनका नाम मंगल मंत्र बना हुआ है। उनके नाम से जुड़ा प्रसिद्ध मंत्र है-
चइता भारहं वासं चक्कवट्टी महड्डियो । संती सतिकरे लोएं, पत्तो गई मणुत्तरं !!
जीवन की नई दिशा
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हम केवल मंत्र और परंपरा की दृष्टि से ही नहीं, जीवन शैली की दृष्टि से विश्लेषण करें। जर्मन विचारक नीत्से ने कहा था- एक व्यक्ति जिस विचार में जन्म लेता है, उसी विचार में मर जाता है। किसी विचार में जन्म लेना नियति है किन्तु उसी विचार में मरना मूर्खता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सब गृहस्थी को छोड़कर साधु बन जाएं। यह बहुत कठिन काम है और सबके लिए संभव नहीं है । पर कम से कम व्यक्ति गृहस्थी में न मरे। इसका तात्पर्य है--या तो मुनिदीक्षा को स्वीकार करे, और ऐसा न कर सके तो घर के प्रपन्चों से सर्वथा मुक्त हो, त्याग-वैराग्य का, संन्यास जैसा जीवन जीना शुरू कर दे। वह गृहस्थी के झंझटों में न रहे। यह एक बहुत अच्छी जीवन शैली है। यदि ऐसा होता है तो न पुत्र पिता का तिरष्कार करेंगे, न पिता के मन में घर के प्रति द्रोह जन्मेगा । उसे यह कहना नहीं पड़ेगा - मैंने किस आशा से बेटों को पाल पोषकर बड़ा किया था। आज बेटे मुझे पूछते ही नहीं हैं। जैसे ही पक्षी के पंख आते हैं, वे विभिन्न दिशाओं में उड़कर माता-पिता से दूर चले जाते हैं। शायद पक्षी भी यह सोचते होंगे -- इन्हें कितने परिश्रम से पाला, पोषा, बड़ा किया, आज आते ही हमें छोड़कर चले गए। जिन लड़कों को प्रेम से पाला-पोषा,
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