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राजर्षियों की परंपरा
जीवन की शैली को जानता है या मरने की कला को जानता है। एक आदमी जन्मा, सत्तर-अस्सी या नब्बे वर्ष तक जीए और इतने वर्ष तक एक ही प्रकार का जीवन जीए, यह सचमुच आश्चर्य की बात है।
एक सोलह वर्ष के लड़के से पूछा-पढ़ाई करते हो। उत्तर मिला-नहीं। मैंने पूछा-इतनी जल्दी पढ़ाई क्यों छोड़ी ? व्यापार में लग गया।
अठारह वर्ष का युवक भी यही उत्तर देगा और बीस वर्ष या बाईस वर्ष का युवक भी यही उत्तर देगा। सोलह वर्ष का अठारह या बीस वर्ष का होकर व्यक्ति जिस काम में लग गया, वह जीवन भर उसी काम में लगा रहेगा। जब तक सांस लेगा, खाट नहीं पकड़ेगा तब तक उसे नहीं छोड़ेगा। यह जीना भी कोई जीना है। कार्यों का परिवर्तन होना जरूरी है। वह जीवन शैली महत्वपूर्ण होती है, जिसमें कार्यों का काल के साथ निर्धारण होता है। कब क्या करना चाहिए, इसका बोध आवश्यक है। यह नहीं हो सकता कि सुबह नाश्ता शुरू करें तो शाम तक दही करते चले जाएं। यदि व्यक्ति ऐसा करने लग जाए तो क्या होगा? उसका परिणाम बहुत हानिप्रद होता है इसीलिए मनुष्य निरन्तर नहीं खाता, बीच बीच में विराम लेता है। प्राचीन जीवन शैली
प्राचीन काल में जीवन की जो शैली थी उसका थोड़ा-सा चित्रण कालिदास ने रघुवंश में किया है। रघुकुल के राजाओं की जीवन शैली का विश्लेषण करते हुए लिखा गया--
शैशवेभ्यस्तविद्यानां, यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धक्ये मनिवृत्तीना, योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।। रघुकुल के राजा शैशव में विद्या का अभ्यास करने वाले, यौवन में विषय की एषणा करने वाले, बुढ़ापे में मुनिवृत्ति को धारण करने वाले और अन्त में योग के द्वारा शरीर त्यागने वाले होते थे। ___जीवन की एक शैली रही है--पच्चीस वर्ष तक अध्ययन करे। केवल अध्ययन, व्यापार व्यवसाय नहीं। आत्मविद्या और लौकिक-विद्या--दोनों का संतुलित अध्ययन। उसके बाद २५ वर्ष तक व्यापार व्यवसाय करे, काम-भोग आदि सांसारिक प्रवृत्तियों में बिताए । पचास वर्ष का होने पर सारे सांसारिक झंझटों को छोड़ विरक्त हो जाए। पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम में रहे। उसके बाद योग के द्वारा शरीर का त्याग करे। यह बात शायद कालिदास के समय में दूसरों के प्रभाव से आई है। आश्रम-व्यवस्था
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