________________
जीव :
': स्वरूप और लक्षण
६.
शरीर को संचालित करने वाली प्राणशक्ति ( शरीर प्राण) । ७. श्वासोच्छ्वास को संचालित करने वाली प्राणशक्ति
५७
(श्वासोच्छ्वास प्राण) ।
८. वाणी को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (भाषा प्राण) । ९. मन को संचालित करने वाली प्राणशक्ति ( मन:प्राण) । १०. जीवन को संचालित करने वाली प्राणशक्ति (आयुष्य प्राण) । जीवन की सारी प्रवृत्तियां इस प्राण ऊर्जा के द्वारा सक्रिय होती हैं। इसके आधार पर जीवन और मृत्यु की परिभाषा बनती है । प्राणशक्ति का होना जीवन है और प्राणशक्ति का चुक जाना मृत्यु ।
1
जीव और काय
शरीर-रचना के आधार पर जीव छह भागों में विभाजित होता है— १. पृथ्वीकाय, २. अप्काय, ३. तैजसकाय, ४. वायुकाय, ५. वनस्पतिकाय,
६. सकाय ।
साधारणतया सकाय को गतिशीलता के आधार पर जीव माना जाता है । वनस्पति को भी कुछ लोग जीव मानते हैं। जैन दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को भी सजीव माना गया है। जैन दर्शन का सिद्धान्त है कि दृश्य या स्थूल जगत् जीवों के द्वारा निर्मित होता है । जितना दृश्य जगत् है वह या तो जीवयुक्त शरीर है या जीवमुक्त शरीर । ऐसा कोई भी तत्त्व दृश्य नहीं है जो जीव के शरीर के रूप में परिणत न हुआ हो ।
जीव के इन छह कायों में वनस्पतिकाय जीवों का अक्षय कोष है। केवल इसी काय में अनन्त जीव होते हैं । विकास की प्रक्रिया के अनुसार जीव वनस्पति से निकल कर आगे की यात्रा तय करता है ।
जीव और आत्मा
'भगवती सूत्र' में जीव के तेईस पर्यायवाची नाम दिए हैं : १. जीव, २. जीवास्तिकाय, ३. प्राण, ४. भूत, ५. सत्त्व, ६. विज्ञ, ७. वेदक, ८. चेतस्, ९. जेता, १०. आत्मा, ११. रंगण, १२. हिण्डुक, १३. पुद्गल, १४. मानव, १५. कर्ता, १६. विकर्ता, १७. जय, १८. जन्तु, १९. योनि, २०. स्वयंभू, २१. सशरीर, २२. ज्ञायक, (भगवती २०/१७) शाब्दिक दृष्टि से जीव का अर्थ होता है प्राण धारण करने वाला और आत्मा का अर्थ होता है चेतना की विविध अवस्थाओं का अनुभव करने वाला; किन्तु स्थूल व्यवहार में इन्हें एकार्थक कहा जा सकता है ।
२३. अन्तरात्मा ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org