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जीव: स्वरूप और लक्षण आच्छन्न नहीं होता। आकाश में बादलों का घटाटोप है, सूर्य उससे ढंका हुआ है, फिर भी दिन और रात का विभाग बना रहता है । जीव में विद्यमान ज्ञानरूपी चैतन्य, आवरण से पूर्ण आवृत कभी नहीं रहता। उसमें चैतन्य-विकास की कुछ रश्मियां निरन्तर प्रकट रहती हैं। यदि वे प्रकट न हों तो जीव और अजीव में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती।
आवृत-अनावृत चैतन्य में जानने की क्रिया निरन्तर नहीं होती; इसलिए जीव जब जानने का प्रयत्न करता है तब उसका ज्ञान केवल अस्तित्व में रहता है। इस आधार पर जीव की अनुपयोग और उपयोग, इन दो अवस्थाओं का निर्माण होता
आवृत-अनावृत चैतन्य = अनुपयोग; ज्ञेय का ज्ञान नहीं होता। आवृत-अनावृत चैतन्य = उपयोग; ज्ञेय का ज्ञान होता है।
विकास का अन्तिम बिन्दु उपलब्ध होने पर, ज्ञान के आवरण का सर्वथा विलय हो जाने पर चैतन्य अनावृत हो जाता है । उस अवस्था में चैतन्य का स्वरूप इस प्रकार बनता है। __अनावृत चैतन्य-सतत उपयोग = ज्ञेय का सतत बोध । जीव : अनादि-अनन्त __जीव अनादि और अनन्त है । वह अकृत और अनुत्पन्न है, इसलिए अनादि है। वह अकृत और अविनाशी है, इसलिए अनन्त है । चैतन्य उसका मौलिक गुण या स्वरूप है; इसलिए वह भी अनादि-अनन्त है । अनेकान्त की दृष्टि से प्रत्येक अस्तित्व त्रिरूप होता है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य–तीनों समन्वित रूप में द्रव्य के लक्ष्य हैं । धौव्य द्रव्य का शाश्वत स्वरूप है । उत्पाद और व्यय-ये दोनों उसके अशाश्वत रूप हैं। प्रत्येक द्रव्य शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता, इस अपेक्षा से वह शाश्वत है । उसका रूपान्तरण होता रहता है, इस अपेक्षा से वह अशाश्वत है। चैतन्य शाश्वत है। आवरण उसका अशाश्वत भाव है। वह पौद्गलिक है, जीव का स्वभाव नहीं है। वह प्रवाह के रूप में आता है और अपनी अवधि पूर्ण कर चला जाता है । उचित उपाय के द्वारा उसका अन्त भी किया जा सकता है। इसे दो रूपों में देखा जा सकता है
ज्ञान का आवरण; अनादि-अनन्त (उचित उपाय के अभाव में) ज्ञान का आवरण, अनादि सान्त (उचित उपाय के होने पर)
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