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________________ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि पुराने जमाने की बात है--कोई पाहुना आया। खाने को अनार ले लिया हाथ में। देखा—बीज ही बीज । सब फेंक दिया, छिलका खाने लगा। खारा लगा। यह क्या? इससे अच्छा तो हमारा मतीरा होता है। थोडे बीज होते हैं, आसानी से निकाल दिए जाते हैं । यह तो सारा बीजों से ही भरा है । उससे पूछा गया— फल खा लिया? खा तो लिया पर यह कैसा फल दिया मुझे? इससे तो हमारा मतीरा ही अच्छा होता है। उसमें तो बीज बीच में होते हैं। मैंने तो इसके सारे बीज फेंक दिए और शेष खाया तो कड़वा लगा। लगता है कुछ ऐसी अजीब स्थिति हमारी भी हो गई है कि बीजों को तो फेंकते चले जा रहे हैं और छिलके को खा रहे हैं। मानसिक समस्याओं को सुलझाने की जो बातें हैं उन्हें तो अनदेखा करते जा रहे हैं और पीछे जो कड़वाहट है उसे खाते चले जा रहे हैं । हम कुछ आत्मालोचन करें, कुछ विचार करें, विमर्श करें । जो समस्या पहली नहीं है उसे पहली नहीं मानें और जो पहली है उसे दूसरी न मानें । आज की सारी समस्याओं में मुझे एक समस्या बड़ी लगती है-दृष्टि का विपर्यय । मिथ्यादृष्टि हमारी बन गई। उसका परिणाम यह हुआ कि जो मुख्य है उसे गौण मान रहे हैं और जो गौण हैं उसे मुख्य मान रहे हैं। बहुत परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं, केवल इतना-सा परिवर्तन हम करें कि मख्य को मुख्य मानें और गौण को गौण माने । प्रथम को प्रथम माने, द्वयं को द्वयं माने । इतना-सा सामान्य परिवर्तन हो जाता है तो मेरा विश्वास है कि यथार्थ मानी जाने वाली समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी। हम सम्यक्दृष्टि बनें । जिनवाणी का सबसे पहला औषध-तत्त्व है--सम्यक्दृष्टि । यह सबसे बड़ी दवा है । प्राकृतिक चिकित्सा में जब तक एनिमा नहीं दिया जाता, पेट की सफाई नहीं होती तब तक और दवा नहीं दी जाती । अनिवार्य है पेट की सफाई। विजातीय तत्त्व को बाहर निकाल देना, बाहर फेंक देना । हमारे भीतर मिथ्या तत्त्व का कितना विजातीय तत्त्व भरा पड़ा है । हम सम्यक्दृष्टि बनें, अपने को सम्यक्दृष्टि करें । यथार्थ को यथार्थ मानें । इतना-सा परिवर्तन हो जाए तो जिनवचन एक दवा है, एक औषधि है कि हम वर्तमान की समस्याओं को सुलझा सकते हैं, हमारी बीमारियों को मिटा सकते हैं । न केवल मानसिक बीमारियों को मिटा सकते हैं बल्कि शारीरिक बीमारियों को भी मिटा सकते हैं । एक आदमी नींद लेने के लिए गोलियां लेता है, मन की शान्ति के लिए गोलियां लेता है। अमेरिका जैसे देश में अरबों रुपयों की गोलियां बिकती हैं। आपको जरूरत क्या है? आप प्रयोग करें जिनवाणी का। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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