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जिन शासन : २
एक गोष्ठी का आयोजन था। प्रिंसिपल, प्रोफेसर और लेक्चरार उपस्थित थे। उन्होंने एक प्रश्न उपस्थित किया, तपस्या है यथार्थ और महावीर को हमने आज यथार्थ के रूप में सुना । यह ठीक है कि हम यथार्थ को आंखों से ओझल न करें । समस्या है—रोटी, कपड़ा और मकान की । आज पानी की भी समस्या बन गई, बिजली की भी समस्या बन गई, ऊर्जा की समस्या बन गई और किरोसिन तेल जैसी वस्तु की भी समस्या बन गई । समस्या है यथार्थ की और हम बात करते हैं धर्म की । धर्म से तो रोटी की समस्या हल नहीं होगी, यथार्थ की समस्या तो सुलझेगी नहीं । फिर क्या होगा? ये बहुत सारे प्रश्न उनके मन में उभर गए या कल मैंने चर्चा में उभार दिए। उसी चर्चा के सन्दर्भ में उन्होंने प्रश्न प्रस्तुत किए। सचमुच विकट प्रश्न है । एक ओर धर्म का प्रश्न, दूसरी ओर जीवन का प्रश्न । आदमी तो पूरा जी भी नहीं पा रहा है और हम धर्म की चर्चा करते हैं । उन लोगों को तो पता नहीं चलता जिन्हें पेट भर रोटी मिल जाती है किन्तु उन लोगों को वास्तव में पता चलता है जिन्हें खाने के लिए हमेशा चिन्तित रहना पड़ता है। सुबह होती है तो शाम के लिए फिर चिन्तित और शाम होती है तो फिर सुबह के लिए चिन्तित । उन्हें वास्तव में पता चलता है कि जीवन कैसे जीया जाता है । एक बार डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा-आप मेरे साथ गांव में चले, फिर मैं आपको बताऊं कि वास्तविकता क्या है । बड़े दर्द से उन्होंने कहा, कहा ही नहीं बल्कि गुरूदेव से अनुरोध किया कि मुनि नथमलजी को आप मेरे गांव में भेजे । मैं उन्हें वस्तुस्थिति बताना चाहता हूं। इतना आग्रह किया तो गुरूदेव ने कहा कि समय होगा तो संभव हो सकेगा। लोहियाजी ने बताया कि हमारे हिन्दुस्तान में सोलह करोड़ आदमी (पचीस-तीस वर्ष पहले की बात है) ऐसे हैं, जिन्हें पूरी रोटी भी नहीं मिलती । बड़ा विकट प्रश्न है । आज सारे संसार में इस प्रश्न पर बहुत गम्भीरता से चिन्तन हो रहा है। कुछ पश्चिमी दार्शनिकों ने जब इन यथार्थ समस्याओं पर विचार किया तो इस प्रश्न को और उभरने का मौका मिल गया। साम्यवाद की प्रणाली आयी, समाजवादी जीवन की प्रणाली आयी
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