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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि हो गई । श्रुत केवली, चतुर्दशपूर्वी और वे नहीं पढ़ाएंगे तो इसका अर्थ है कि ज्ञान की परम्परा लुप्त हो जाएगी, विच्छिन्न हो जाएगी। संघ मिला, हजारों साधु इकट्ठे हुए, साध्वियां मिलीं, श्रावक-श्राविकाएं मिले और निर्णय हुआ कि आचार्य भद्रबाहु से प्रार्थना की जाए। साधुओं को भेजा, उन्होंने आचार्य के सामने प्रार्थना रखी। आचार्य भद्रबाहु ने कहा-मैं महाप्राण ध्यान की साधना कर रहू हूं। मैं अब ऐसा नहीं कर सकता।
दूसरी बार फिर अनुरोध किया गया और संघ की भावना से अवगत कराते हुए उनसे कहा गया कि समूचा संघ यह निर्णय लेता है कि आपको पढ़ाना चाहिए। आप संघ की प्रार्थना को स्वीकार करें तो हमारा सौभाग्य है और संघ की भावना को ठुकराते हैं तो इस बात पर विचार करें कि उसका क्या प्रायश्चित्त होना चाहिए? जब यह अन्तिम बात उनके सामने रखी गई तो आचार्य भद्रबाहु ने कहा- यदि स्थिति यहां तक पहुंचती है, संघ का एक अनुरोध है, प्रबलतम अनुरोध है तो मैं उसे नहीं ठुकराऊंगा। मैं संघ के अनुरोध को स्वीकार करता हूं। कुछ समय निकालकर, अपने ध्यान की साधना चालू रखते हुए भी शिष्यों को पढ़ाऊंगा।
संघ की इतनी महत्ता जैन शासन में प्रस्थापित हुई। यह बहुत आवश्यक है। शासन बहुत उपयोगी होता है । यदि शासन न हो तो परम्परा कभी चल नहीं सकती। दीप से दीप जल सकता है। सारे व्यक्तित्व संघ में से निकलते हैं। यदि संघ न हो तो स्थिति नहीं बनती। साधना करते वाले सब लोगों में बहुत शक्ति नहीं होती। बहुत से लोग कमजोर भी होते हैं। आज बहुत वैज्ञानिक खोजों के बाद इस सचाई को स्वीकार किया गया कि एक व्यक्ति अकेला ध्यान करता है और एक व्यक्ति समूह में ध्यान करता है, तो समूह का ध्यान ज्यादा उपयोगी होगा। इसलिए अकेले व्यक्ति के ध्यान की अपेक्षा ग्रुप मेडिटेशन की बात ज्यादा चलती है। समूह में ध्यान किया जाए। एक व्यक्ति का 'ओरा', उसका आभामंडल दुर्बल है । एक व्यक्ति में लेश्या क्षीण है, कमजोर है किन्तु एक शक्तिशाली व्यक्ति बैठता है और उसके आस-पास यदि पचासों-सैकड़ों व्यक्ति बैठते हैं तो सब को प्राण-शक्ति मिलती है और सब में नयी स्फुरणा, 'नयी चेतना जागती है । पहले व्याख्या इतनी स्पष्ट नहीं थीं, किन्तु आज तो व्याख्या बहुत स्पष्ट हो गई है।
हमारा अस्तित्व क्या है ? जैन दर्शन की दृष्टि से विचार करें तो प्रत्येक
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