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________________ जिन शासन : १ . ३७ में उतर जाएगा। शासन बाहर से नहीं आता, अनुशासन बाहर से आ सकता है। शासन बाहर से नहीं आता, इसी बात की सूचना है-'जिन शासन' । 'जिन' कोई दूसरा नहीं होता, जिन अपनी आत्मा होती है । वह आत्मा, जिसकी चेतना का विकास हो गया हो, जिन होता है । वह आत्मा जिसकी चेतना विकसित होने के अनन्तर राग-द्वेष समाप्त हो गए, जिन होता है। आज जैन परम्परा में 'जिन' शब्द प्रचलित है। हो सकता है कि प्राचीन काल में 'चिन' शब्द था, जो आज 'जिन' बन गया। प्राकत में 'चिन' का 'जिन' बन जाता है। बहत बड़ा भ्रम हआ है। 'आज्ञाविचय' का कर दिया गया आज्ञाविजय । ‘लोकविचय' का होना चाहिए 'लोकविजय' । प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'च' का 'ज' हो जाता है । 'चितम' का 'जितम्' । परिचितम् का परिचतम् । विचय का विजय । पकड़ा नहीं गया, 'चिन' का जिन हो गया। तब दो अर्थ बन गए। चिन का अर्थ है--जानना । दूसरा अर्थ यदि 'जिन' मानें तो उसका अर्थ होता है-जीतने वाला। दोनों अर्थ घटित होते हैं । चिन का अर्थ है-'आत्मज्ञानी' । जिसे आत्मा का ज्ञान प्राप्त हो गया, जिसे कैवल्य उपलब्ध हो गया, वह जिन (चिन) होता है अथवा जिसके राग-द्वेष क्षीण हो गए, वह जिन होता है । जिन-शासन का अर्थ है-आत्मा का शासन । जिस व्यक्ति का अपनी आत्मा पर शासन हो गया, अनुशासन अपने आप उसमें आ जाएगा । अनुशासन की कठिनाई है कि हम शासन की ओर ध्यान नहीं देते । जैन परम्परा में साधना को नया आयाम दिया । कुछ लोगों की धारणा थी कि साधना अकेले में ही हो सकती है। जैन तीर्थंकरों ने कहा-साधना संघबद्ध हो सकती है । इतिहास की दृष्टि से श्रमण परम्परा ने सबसे पहले संघबद्ध साधना का प्रयोग प्रारम्भ किया। इसलिए संघ का बड़ा महत्त्व है । जैन धर्म में संघ का जितना महत्त्व है, उतना महत्त्व अन्यत्र शायद परिस्थापित भी नहीं । संघ का महत्त्व बढ़ते-बढ़ते यहां तक बढ़ गया, वह इतना प्रधान हो गया कि आचार्य भी संघ की अवज्ञा नहीं कर सकते । भद्रबाहु स्वामी ने जब यह निर्णय लिया कि मुझे महाप्राण ध्यान की साधना करनी है, अब किसी को वाचना नहीं दूंगा, पढाऊंगा नहीं। ऐसा होता है, जब व्यक्ति साधना में जाता है तो सहज ही निरपेक्षता जागती है। इतने बड़े आचार्य, चतुर्दशपूर्वी, एकमात्र संघ के नेता। उस समय कोई सम्प्रदाय नहीं था दूसरा । न कोई श्वेताम्बर था, न कोई दिगम्बर था। संघ में कोई विभाजन नहीं हुआ था । एकमात्र समूचे संघ के, जैन धर्म के अप्रतिम नेता और उन्होंने निर्णय ले लिया कि अब मैं किसी को पढ़ाऊंगा नहीं । बड़ी समस्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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