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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि एक धार्मिक गुरु प्रवचन कर रहे थे। अपने प्रवचन में आहार-संयम पर बल देते हुए वे कह रहे थे--“धर्म का प्रारम्भ आहार के संयम से होता है। उपवास और ऊनोदरी करो, रस का परित्याग करो।" आहार-संयम पर उन्होंने बहुत लम्बी चर्चा प्रस्तुत की। प्रवचन में बैठा एक आदमी उठकर खड़ा हुआ और बोला-"महाराज ! आपने जो बात कही, वह समझ में नहीं आयी। आहार-संयम करने का मतलब होता है-शरीर को दुबला-पतला बना लेना। आपको पता है कि कुश्ती लड़ने वाले मल्ल कितना खाते हैं ? एक मल्ल के नाश्ते की तालिका को यदि पढ़ा जाए तो आश्चर्य होगा। साधारण शरीर वाला आदमी तो सोच भी नहीं सकता कि इतना खाया जा सकता है ! खुब खाते हैं और व्यायाम करके शरीर को मजबूत बनाते हैं। आपके उपदेश की यह बात समझ में नहीं आती कि कम खाना चाहिए। कम खाने से तो शरीर कमजोर ही बनेगा और कमजोर शरीर किस काम का?"
बात सुनी और सुनने के बाद संन्यासी ने कहा- “भाई ! मल्ल इतना खाता है, शरीर को मजबूत और ताकतवर बनाता है, बताओ, फिर क्या करता है?"
"दूसरों को पछाड़ देता है।” जिज्ञासु आदमी झट बोल पड़ा। .
संन्यासी ने कहा-~-“भाई ! तुम्हारी बात ठीक है, किन्तु मैं उस शक्ति को शक्ति नहीं मानता जो दूसरों को पछाड़ती हो ! मैं तो यह चाहता हूं कि व्यक्ति ऐसी शक्ति अर्जित करे, जो दूसरों को पछाड़े नहीं, किन्तु दूसरों को उठाए । मल्लों का काम तो दूसरों को पछाड़ना है।"
वह शक्ति किसी काम की नहीं होती, जो दूसरों को पछाड़े। वह शक्ति ही मंगल है, जो दूसरों को उठाए । आज तक के इतिहास में यही मिलेगा कि उन्हीं लोगों ने सारी जनता को उठाने का, जगाने का प्रयत्न किया, जिन्होंने आहार-संयम किया है । जिन्होंने इस रहस्य को समझा है कि भोजन की मात्रा को सीमित करके एक ऐसी निर्मल शक्ति पैदा की जा सकती है, जो दूसरों को उठाने का काम करती है, दूसरों को पछाड़ने में कभी नहीं लगती। जिन लोगों ने खूब डटकर खाया, खाने को ही परम कल्याण समझा, उनकी शक्ति सदैव दूसरों को पछाड़ने में ही लगी रही। भोजन-भट्टों ने कभी भी दुनिया के लोगों को उठाने का प्रयत्न नहीं किया, संकल्प भी नहीं किया। उनमें ऐसी ताकत भी नहीं आती, जो औरों को उठा सके । उन लोगों में सात्विक शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने आहार का संयम करना सीखा, भोजन का नियन्त्रण सीखा, अपनी जीभ की
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